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* सम्राट संपति *
सम्राट अशोक के समय की बात है। एक दोपहर के समय साधु सब गोचरी के लिए निकले थे। गोचरी लेकर वे पास लौट रहे थे, तो उनको एक भिखारी मिला। उसने कहा, आपके पास भिक्षा है तो थोड़ा भोजन मुझे दो। मैं भूखा हूँ। भूख से मर रहा हूँ। उस समय साधु ने वात्सल्यभाव से कहा, "भाई ! इस भिक्षा में से हम तझे कुछ भी नहीं दे सकते क्योंकि उस पर हमारे गुरुदेव का अधिकार है। तू हमारे साथ गुरुदेव के पास चल । उन्हें तूं प्रार्थना करना। उनको योग्य लगेगा तो वे तुझे भोजन करायेंगे।
साधु के सरल और स्नेहभरे वचनों पर उस भिखारी को विश्वास बैठा। वह उन साधुओं के पीछे पीछे गया। साधुओं ने गुरुदेव आचार्य श्री आर्यसुहस्ति से बात
की। भिखारी ने भी आचार्यदेव को भाव से वंदना की और भोजन की मांग की। आचार्य श्री आर्यसहस्ति विशिष्ट कोटि के ज्ञानी पुरुष थे। उन्होंने भिखारी का चेहरा देखा। कुछ पल सोचा, भविष्य में बडा धर्मप्रचारक होगा ऐसा जानकर भिखारी को कहा, "महानुभाव ! हम तुझे मात्र भोजन दे ऐसा नहीं परंतु हमारे जैसा तुझको बना भी दे । बोल तुझे बनना है साधू ? भिखारी भूख से व्याकुल था, भूख का मारा मनुष्य क्या करने के लिए तैयार नहीं होता ? भिखारी साधू बनने के लिए तैयार हो गया। उसे तो भोजन से मतलब था और कपड़े भी अच्छे मिलनेवाले थे। भिखारी ने साधू बनने की हाँ कही। दयाभाव से साधुओं ने उसे वेश परिवर्तन कराकर दीक्षा दी और गोचरी के लिए बैठा दिया। इस नये साधू ने पेट भरकर खाया | बडे लम्बे समय के बाद अच्छा भोजन मिलने से, खाना चाहिए उससे अधिक खाया। रात को उसके पेट में पीडा
हुई। पीड़ा बढती गयी। प्रतिक्रमण करने के बाद सब साधू उसके पास बैठ गये और नवकार महामंत्र सुनाने लगे। प्रतिक्रमण करने आये हुए श्रावक भी इस नये साधू की सेवा करने लगे।
आचार्य देव स्वयं प्रेम से धर्म सुनाने लगे। यह सब देखकर नया साधू मन में सोचने लगा कि मैं तो पेट भरने के लिए साधू बना था। कल तक तो ये लोग मेरी ओर देखते भी नहीं थे और आज मेरे पैर दबा रहे हैं।
और ये आचार्यदव ! कितनी ज्यादा करुणा है उनमें। मुझे समाधि देने के लिए वे कैसी अच्छी धार्मिक बातें मुझे समझा रहे हैं। यह तो जैन दीक्षा का प्रभाव है। परंतु यदि मैंने सच्चे भाव से दीक्षा ली होती तो...। इस प्रकार साधूधर्म की अनुमोदना करते करते और नवकार मंत्र का श्रवण
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