Book Title: Jain Dharm Darshan Part 02
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 100
________________ हो, तो इसका पता तुझे कैसे चलता है ? तुझे कुछ ज्ञान हुआ है ? उसने कहा "हे पूज्य ! जो जिसके पास रहते हैं तो सहवास से उनके विचार क्यों नहीं जान सकते ? (मुझे केवलज्ञान प्राप्त हुआ है ऐसा बताया नहीं क्योंकि ऐसा ज्ञात होने पर आचार्य उससे आहार पानी न मंगवाते) एक बार वह बरसते बरसात में आहार पानी ले आयी । आचार्य ने कहा " हे कल्याणी ! तू श्रुतसिद्धांत के ज्ञान से आहार- पानी लाने के आचार की ज्ञाता फिर भी बरसते बरसात में आहार- पानी क्यों लाई ? उसने कहा " जहाँ जहाँ अपकाय अचित वर्षा है उस उस प्रदेश में रहकर आहार लायी हूँ इसलिए यह आहार अशुद्ध नहीं है। गुरु ने पूछा “ तुने अचित प्रदेश कैसे जाना ? उसने उत्तर दिया “ ज्ञान से" । आचार्य ने पूछा “ कौनसे ज्ञान से ? प्रतिपाती (आने के बाद चले जाय) या अप्रतिपाती ( आने के बाद चला न जाय ) वह बोली आपकी कृपा से अप्रतिपाती (केवल) ज्ञान से ज्ञात हुआ। आचार्य महाराज बोल उठे “ अहो ! मैंने केवली की आशातना की है। " ऐसा कहकर उससे क्षमा याचना करके पुष्पचूला को पूछा " मुझे केवलज्ञान होगा या नहीं ? केवली ने कहा ** 'हाँ, आपको गंगा नदी के पार उतरते ही केवलज्ञान उत्पन्न होगा। महोत्सवपूर्वक उसको दीक्षा ग्रहण करवाई । दीक्षा लेने के बाद वह हर रोज एक बार राजा को दर्शन देने जाती थी । इस प्रकार कुछ समय बीतने के बाद वहाँ ज्ञान के उपयोग से अकाल पडने का ज्ञात होते ही आचार्य द्वारा अपने शिष्यों को अन्य देश में विहार करने का कहने पर उन्होंने वहाँ से विहार किया। आचार्य महाराज अकेले ही वहाँ रहे । पुष्पचूला आचार्य महाराज को आहार पानी वगैरह ला देती थी। सुश्रुषा व वैयावच्च (सेवा) करने में बिना ग्लान से तत्पर रहती थी। इस प्रकार वैयावच्च करते रहने में कुछ काल बीतने पर क्षपक श्रेणी में पहुँचते ही उसे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ फिर भी गुरु की वैयावच्च करने में वह हमेशा तत्पर रहती थी और उनको जो चीज पर रुचि हो वही ले आती थी। एक बार गुरु ने उसको पूछा “भद्रे ! बडे लम्बे समय से तू मेरे मनचाहे आहार- पानी ले आती - Jain Education international कुछ समय बाद आचार्य कई लोगों के साथ गंगा नदी पार कर रहे थे । जिस ओर आचार्य बैठे थे, नाव का ओर छोर झुकने लगा। बीच में बैठे तो पुरी नाव डूबती देखकर सब लोगों ने उन्हें नदी में धकेल दिया । पूर्वभव में आचार्य द्वारा अपमानित पूर्वभव की स्त्री व्यंतरी बनी थी जो नाव डूबा रही थी । पानी में एक सूली खडी की गई होने से नदी में धकेले गये आचार्य पानी में गिरते ही लहूलूहान हो गये । फिर भी “हा हा ! मेरे इस खून से अपकाय जीव की विराधना होती है - ऐसा सोचते सोचते उनको वहीं केवलज्ञान उत्पन्न होने से अंतगड केवली होकर मोक्ष गये (केवलज्ञान पाकर कुछ समय में ही मोक्ष जाये तो अंतगड केवली कहा जाता है।) पुष्पचूला केवली पृथ्वी पर विचरकर कई लोगों को बोध व लाभ देकर अंत में सर्व कर्मों का क्षय करके मोक्ष पधारी । - इस पुष्पचता का गुणों से पवित्र चरित्र सूनकर जो भव्य अपने गुरु के चरणकमल सेवन में तत्पर रहता है, वह शाश्वत स्थान पाता है। 94 For Personal & Private Use Only इन से इसे इसे इसे इसे इसे से है में से www.jainelibrary.org

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