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नामक एक गणिका को पाँच पुरुषों के साथ काम - क्रीडा में रत देखा तो उसके मन में भी कामवासना भडक उठी। वह मन ही मन उस वेश्या के भाग्य की सराहना करने लगी। उसी समय उसने निदान किया कि मेरे इस भव की तपस्या का कुछ सुफल मिले तो मैं भी अगले भव में पाँच पुरुषों के साथ सांसारिक भोगों की प्राप्ति करूँ। तत्पश्चात आठ माह तक संलेखना करके वह सौधर्म देवलोक में नौ पल्योपम के आयुष्यवाली देवी हुई। वहाँ से पांचाल देश में कंपिलपुर के राजा द्रपद के यहाँ पुत्री के रुप में जन्म लिया। राजा द्रुपद की अंगजात होने के कारण उसका नाम द्रौपदी रखा गया। युवावस्था को प्राप्त होने पर राजा द्रुपद ने उसके विवाह के लिए स्वयंवर की
रचना की। पाँचों पांडव भी स्वयंवर में आमंत्रित थे। अर्जन ने अपने अचक निशाने से स्वयंवर में विजय प्राप्त की। द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला पहनाई, मगर उसके पूर्व भव के निदान स्वरूप वरमाला पाँचों पांडवों के गले में पडी प्रतीत हुई। फलस्वरूप वह पाँचों पांडवों की पत्नी कहलाई।
हस्तिनापुर के राजा युधिष्ठिर ने नूतन सभा का निर्माण करवाया, जो उस समय अत्यंत भव्य थी वैसी दूसरी सभा नहीं थी। इस भव्य सभा का निरीक्षण करते हुए कौरवों का ज्येष्ठ दुर्योधन अज्ञानता पूर्वक जलस्थान को थलस्थान समझकर उसमें गिर पडा। “अंधे का पुत्र अंधा होता है'' द्रौपदी का यह कटाक्ष शब्द दुष्ट प्रकृति के दुर्योधन को तीर सा चुभ गया। इस अपमान का बदला लेने की योजना स्वरूप उसने पाँडवों को द्यूत क्रीडा के लिए इन्द्रप्रस्थ में आमंत्रित किया। अपने दुष्ट मामा शकुनि के दिव्य पाशों के कारण दुर्योधन की जीत पर जीत होती गई। युधिष्ठिर अपना राजपाट, चारों भाई, पत्नी द्रौपदी एवं अपना सर्वस्व जूए में हार गए। अब वे सब दुर्योधन के अधीन गुलाम थे। अपने अपमान का बदला लेने का अच्छा अवसर जानकर दुर्योधन ने द्रौपदी को अपने दरबार में बुलाया। भरी सभा में उसका अपमान करते हुए दुशासन को उसका चीर हरण करने का आदेश
दिया। पतिव्रता सती द्रौपदी ने नवकार महामंत्र की शरण ली और ध्यान में तल्लीन हो गई। दुशासन द्रौपदी की साडी के पल्लों को पकड कर खींचने लगा। महामंत्र के प्रभाव से चीर बढता ही गया। दशासन साडी को खींचते खींचते थक हार कर भूमि पर गिर पड़ा। इस अवसर पर महात्मा विदुर ने धृतराष्ट्र से इस शर्मनाक अन्याय में हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया। धृतराष्ट्र के कहने पर दुर्योधन ने पाँडवों को दासता से मुक्त होने के लिए उनको बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास
करने का आदेश दिया। पाँडवों ने अपनी माता कुन्ती और पत्नी द्रौपदी के साथ वन की ओर प्रस्थान किया। अनेक कष्टों का सामना करते हुए पांडवों ने बारह वर्ष का वनवास पूरा किया। अब अपने एक वर्ष के अज्ञातवास को पूरा करने के लिए वे विराट नगर के महाराज विराट के यहाँ भेष बदल कर नौकरी करने
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