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* द्रौपदी * महासती द्रौपदी एक महाश्रमणी थी - इसे किसी भी स्थिति में नकरा नहीं जा सकता। लेकिन पाँच पाँडवों की पत्नी होने के बाद भी उसका पतिव्रता एवं महासती कहलाना कुछ अटपटा और आश्चर्य जनक प्रतीत होता है। इस रहस्योद्घाटन के लिए हमें द्रौपदी के कुछ पूर्व भवों में झांक कर देखना होगा कि किस प्रकार के निदान
के कारण उसके साथ यह घटना घटित हुई।
चम्पापुरी नगरी में सोमदेव नामक ब्राह्मण था। उसको नागश्री नामक स्त्री थी वह सुंदर रसोई करके परिवार को भोजन कराती थी। एक बार उसने तूंबे का साग बनाया परंतु उसे चखते ही मालूम पडा कि यह तो कइआ है। इस कारण उस साग को एक ओर रख दिया क्योंकि मसाले, तेल वगैरह प्रयुक्त होने के कारण फेंकते हुए उसका जी न चला। परिवार के लिए दूसरा साग बना डाला। इतने में श्री धर्मरुचि साधू धर्मलाभ' कहकर पधारे। वे यहाँ आये थे। नागश्री यति की द्वेषी थी। उसने एक ओर रखा कडवी तूंबी का साग इस महाराज को गोचरी में दे दिया। वह लेकर श्री धर्मरुचि महाराज अपने गुरु श्री धर्मघोष के पास आये। वहाँ उसके लाये हुए तूंबी के आहार देखकर गुरु ने कहा, यह तूंबे का फल अति कडुआ
है, इससे यह साग प्राणहारक है इसलिए इसे कोई निरवद्यभूमि में गाड दो (त्याग दो)। गुरु का ऐसा आदेश सुनकर शिष्य उद्यान में गया। वहाँ साग का एक बिन्दू भूमि पर गिर गया। उससे इकट्टी हुई सब चींटियाँ मर गई। यह देखकर शिष्य को बडी करुणा उत्पन्न हुई और सोचा कि यह साग भूमि में गाडूंगा तो जीवों की हानि होगी, इससे मैं ही उसका भक्षण करूं ऐसा सोचकर स्वयं ने वह कडुआ साग खा लिया और पंचपरमेष्ठि के ध्यान में लीन हो गये। इस उत्तम ध्यान के कारण वह मृत्यु पाकर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव बने। कालानुसार जिसने कडवी तूंबी का साग दिया था वह नागश्री मरकर छठे नरक में गयी, वहाँ से मत्स्य होकर फिर सातवीं नरक में गयी और आगे भी नरक में गयी इस प्रकार सात बार नरक गमन और मत्स्य के भव हुए। अपने कर्मों का भुगतान करते हुए नागश्री के जीव ने चंपानगरी के सेठ सागरदत्त के यहाँ पुत्री के रुप में जन्म लिया। उसका नाम सुकुमालिका रखा गया। इस भव में भी उसके पूर्व भव के पाप कर्मों ने उसका पीछा नहीं छोडा। युवावस्था प्राप्त होने पर उसका विवाह श्रेष्ठी पुत्र जिनदत्त के साथ हुआ। मगर उसके देह की उष्णता एवं देह का स्पर्श तलवार के समान तीक्ष्ण होने के कारण जिनदत्त ने पत्नी धर्म से उसका तिरस्कार कर दिया। पति से पदच्युत होने पर उसने हताश होकर दीक्षा अंगीकार कर ली। सुकुमालिका साध्वी बन तो गई। मगर स्वभाव से बडी अविवेकी, मनमानी करने वाली और जिद्दी प्रकृति की थी। उसने अपनी गुरुणीजी की आज्ञा के विरुद्ध नगर के बाहर खुले उद्यान में सूर्य - आतापना लेने का निश्चय किया। उस अवसर पर उसने देवदत्ता
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