Book Title: Jain Dharm Darshan Part 02
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 105
________________ O लगे। द्रौपदी ने राजमहल में सैरन्ध्री के नाम से दासी का काम संभाला। राजा विराट का साला कीचक बडा ही दुराचारी था। द्रौपदी पर उसकी बुरी नजर थी । नवकार महामंत्र के प्रभाव से हर समय वह बाल - बाल बचती रही । अंत में भीम ने कीचक का वध करके सती के शील की रक्षा की। बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास पूरा होने पर पाँडवों ने अपने राज - पाट को वापस मांगने के लिए श्रीकृष्ण को अपना दूत बनाकर दुर्योधन के पास भेजा। मगर दुर्योधन सूई की नोक - भर भूमि भी उन्हें देने के लिए तैयार नहीं हुआ। अनेक प्रकार से समझाने पर भी जब दुर्योधन अपनी जिद्द पर अटल रहा तो दोनों के बीच युद्ध हुआ, जिसे "महाभारत का युद्ध' कहा जाता है। युद्ध के मध्य में अश्वत्थामा ने रात के समय छल - कपट से द्रौपदी के पाँच पुत्रों की हत्या कर दी। द्रौपदी के विलाप को अर्जुन और भीम से देखा नहीं गया। उन्होंने अश्वत्थामा को बंदी बना कर द्रौपदी के सम्मुख उपस्थित किया और बोले - “देवी ! तुम्हारा पुत्र का घातक तुम्हारे सामने हैं। तुम इससे अपने पुत्रों का बदला लेने के लिए स्वतंत्र हो।" क्षमा की मूर्ति सती द्रौपदी बोली - "देव ! मैंने पुत्रों को खो दिया है। पुत्र वियोग कैसा होता है, इसका मुझे अनुभव हो चुका है। मैं गुरुपुत्र की घात करके भी अपने पुत्रों को वापस पा नहीं सकती। अतः आपसे अनुरोध हैं कि आप इसे मुक्त कर दीजिए।'' सती द्रौपदी की क्षमा का इससे बढकर और उदाहरण क्या हो सकता है ? महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ। पांडवों की विजय हुई। कौरवों का सर्वनाश हो गया। महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ। एक बार द्रौपदी से नारदजी नाराज हो गये। धातकी खंड की अमरकंका नगरी के राजा पदमोत्तर को उकसा कर उन्होंने द्रौपदी का हरण करवाया। सती के सतीत्व पर एक बार फिर संकट के बादल छा गये। सती ने धर्म की शरण ली। नवकार महामंत्र के प्रभाव से राजा पद्मोत्तर उसकी छाया तक को नहीं छू पाया। श्रीकृष्ण की सहायता से पांडवों ने लवण समुद्र पार किया। राजा पद्मोत्तर के साथ घमासान युद्ध हुआ। हार कर राजा पद्मोत्तर ने द्रौपदी को वापस लौटाया। अपने अपराध के लिए श्रीकृष्ण के चरणों में गिरकर उसने क्षमायाचना की। __ अमरकंका से लौटते समय पांडवों के नौका न भेजने से श्रीकृष्ण अत्यंत क्रुद्ध हो गये। कुन्ती ने श्रीकृष्ण से क्षमायाचना करके पांडवों के प्राणों की रक्षा की। श्रीकृष्ण ने पांडवों को EARN अभयदान देकर देश - निष्कासित कर दिया। दक्षिण समुद्र के तट पर आकर पांडवों ने दक्षिण मथुरा नामक नगर बसाया और उस पर शासन करने लगे। कुछ काल पश्चात् पांडवों को पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। उसका नाम पाण्डुसेन रखा गया। युवावस्था को प्राप्त होने पर पाण्डुसेन राज्य कार्य में सहयोग करने लगा। इधर श्रीकृष्ण वासुदेव के देह विलय की जानकारी होने पर और पुद्गलों की क्षण भंगुरता का ज्ञान होने पर सती द्रौपदी को इस असार संसार से विरक्ति हो गई। उसके वैराग्य को देखकर पांडवों को भी घर - संसार

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