Book Title: Jain Dharm Darshan Part 02
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 102
________________ करते करते उसकी मृत्यु हुई और महान अशोक सम्राट के पुत्र कृणाल की रानी की कोख से उसका जन्म हुआ। उसका नाम संप्रति रखा। वयस्क होने पर उन्हें उज्जैन की राजगद्दी मिली और सम्राट संप्रति के रुप में पहचाने जाने लगे। एक बार वे अपने महल के झरोखे में बैठे थे और राजमार्ग पर आवागमन देख रहे थे। वहाँ उन्होंने कई साधुओं को गुजरते हुए देखा। उनके आगे साधु महाराज थे, वे उन्हें कुछ परिचित लगे। उनके सामने वे अनिमेष देखते रहे अचानक ही उनको पूर्वजन्म की याद ताजा हो गई। उनके समक्ष पूर्व भव की स्मृति लहराने लगी और वे पुकार उठे, “गुरुदेव ! तुरंत ही वे सीढी उतरकर राजमार्ग पर आये और गुरु महाराज के चरणों में सिर झुका दिया और उनको महल में पधारने का आमंत्रण दिया। उनको महल में ले जाकर पीढे पर बिठाकर सम्राट संप्रति ने पूछा “गुरुदेव ! मेरी पहचान पड रही है?" "हाँ वत्स ! तुझे पहचाना । तूं मेरा शिष्य । तू पूर्वजन्म में मेरा शिष्य था।" गुरुजी ने कहा। संप्रति ने कहा "गुरुदेव ! आपकी कृपा से ही मैं राजा बना हँ। यह राज्य मुझे आपकी कृपा से ही मिला है। मैं तो एक भिखारी था। घर घर भीख माँगता था और कहीं से रोटी का एक टुकडा भी मिलता नहीं था। तब आपने मुझे दीक्षा दी भोजन भी कराया। खूब ही वात्सल्य से अपना बना दिया। हे प्रभो ! रात्रि के समय मेरे प्राण निकल रहे थे तब आपने मेरे समीप बैठकर नवकार महामंत्र सुनाया। मेरी समता और समाधि टिकाने का भरपूर प्रयत्न किया। प्रभु ! मेरा समाधिमरण हुआ और मैं इस राजकुटुम्ब में जन्मा। आपकी कृपा का ही यह सब फल है। “हे गुरुदेव ! यह राज्य मैं आपको समर्पित करता हूँ। आप इसका स्वीकार करें और मुझे ऋणमुक्त करें। आर्यसुहस्ति ने संप्रति को कहा : “महानुभाव ! यह तेरा सौजन्य है कि तू तेरा पूरा राज्य मुझे देने के लिए तत्पर हुआ है। परंतु जैन मुनि अपरिग्रही होते हैं। वे अपने पास किसी भी प्रकार की संपत्ति या द्रव्य रखते नहीं है।" सम्राट संप्रति को “जैन साधु संपत्ति रख सकते नहीं है।" इस बात का ज्ञान न था। पूर्व भव में भी उसकी दीक्षा केवल आधे दिन की थी। इस कारण उस भव में भी इस बारे में उसका ज्ञान सीमित था। संप्रति के हृदय में गरुदेव के प्रति उत्कृष्ठ समर्पण भाव छा गया था। यह था कृतज्ञता गुण का आविर्भाव। आचार्य श्री ने सम्राट संप्रति को जैन धर्म का ज्ञाता बनाया। वे महाआराधक और महान प्रभावक बने। सम्राट संप्रति ने अपने जीवनकाल में सवा लाख जिन मंदिर बनवाये और सवा करोड़ जिनमूर्तियाँ भरवायी और अहिंसा का खूब प्रचार कर जीवन सफल किया। ....196 AAXX96 Jalin area om n ia Horrelisonal & Prvale use only www.jainelibrary.org

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