________________
* ढंढणमुनि * मगधदेश में धन्यपुर नामक एक श्रेष्ठ गाँव था। वहाँ कृशी पाराशर नाम का धनाढ्य ब्राह्मण रहता था। वह धन के लिए खेती आदि जो भी कार्य करता, उसमें उसे लाभ ही लाभ होता था। “यह लक्ष्मी का फल है" ऐसा मानता हआ वह अपने स्वजनों के साथ आनंद से रहता था। मगध के राजा के आदेशानुसार गाँव के पुरुषों को पाँच सौ हलों से हमेशा राजा का खेत जोतना होता था। जब किसान भोजन के साथ राजा के खेत की जुताई से निवृत्त हो जाते, तब वह ब्राह्मण निर्दयतापूर्वक उसी समय उन भूख से पीडित किसानों से अपने खेत में कार्य करवाता था। उस निमित्त से उस ब्राह्मण ने गाढ अंतरायकर्म का बंध किया और अंत में मरकर वह नरक गति को प्राप्त हुआ। वहाँ से च्यवकर विविध तिर्यंच योनियों में उत्पन्न होता हुआ और किसी तरह पुण्य का उपार्जन कर उसने देवभव और मनुष्यभव को प्राप्त किया। कालांतर में उसे श्रीकृष्ण वासुदेव के ढंढणकुमार नामक पुत्र के रूप में जन्म लिया। सर्व कलाओं का अभ्यास कर वह पुत्र क्रमशः यौवनवय को प्राप्त हुआ और अनेक युवतियों के साथ विवाह कर वह कामदेवसृदश भोग विलास करने लगा।
किसी दिन अठारह हजार उत्तम साधुओं से युक्त शासन प्रभावक श्री अरिष्टनेमि भगवान् ग्रामानुग्राम विचरते हुए द्वारका नगरी के रैवत नामक उद्यान में पधारे। उद्यानपालक ने भगवान् के आगमन की सूचना श्री कृष्ण महाराज को दी। ऐसा शुभ समाचार सुनकर श्रीकृष्ण ने उसे उचित दान दिया और यादवों सहित वे नेमिनाथ भगवान् को वन्दनार्थ निकले। फिर भगवान् तथा मुनियों को वंदन करके सभी ने अपने योग्य स्थान ग्रहण किये। जिनेश्वर भगवान ने सर्व साधारण को अपनी वाणी से धर्मदेशना देना प्रारंभ किया। उनकी वाणी को सुनकर ढंढणकुमार सहित अनेक प्राणियों को प्रतिबोध हआ। ढंढणकमार ने विषय - सखों को त्याग कर प्रभ के पास दीक्षा स्वीकार की। सदा संसार की असारता का चिंतन करते हुए तथा श्रुतज्ञान का अभ्यास करते हुए ढंढणमुनि सर्वज्ञ परमात्मा के साथ विचरने लगे। इस तरह विचरते हुए ढंढणमुनि ने पूर्वभव में जो गाढ अंतरायकर्म का बंध किया था। वह कर्म उदय में आया। कर्म के दोष से ढंढणमुनि जिन साधुओं के साथ भिक्षा लेने जाते, उन्हें भी भिक्षा प्राप्त नहीं होती थी। एक समय साधुओं ने उन्हें भिक्षा नहीं मिलने की बात प्रभु से कही। परमात्मा ने ढंढणमुनि के पूर्व कर्मबंधन का वृत्तान्त सुनाया। यह सुनकर ढंढणमुनि ने परमात्मा के पास अभिग्रह किया कि “अब से मैं दूसरों की लब्धि से मिला हुआ आहार कदापि ग्रहण नहीं करूँगा।" इस प्रकार ढंढणमुनि, मानो अमृतरूपी श्रेष्ठ भोजन करते हुए तृप्त हुए हो - इस तरह से दिन व्यतीत करने लगे।
एक दिन श्रीकृषण ने भगवान् से पूछा - "हे भगवन् ! इन अठारह हजार साधुओं में सबसे उत्कृष्ट मुनि कौन है ?" प्रभु ने कहा - "निश्चय से सभी उत्कष्ट हैं. लेकिन इनमें भी दुष्करकारी ढंढणमुनि है, क्योंकि धैर्यता को धारण कर दुःसह उग्र अलाभ परीषह को सम्यक् रूप से ढढणकमारा सहन करते हुए उनको बहुत समय व्यतीत हो गया है | यह सुनकर श्रीकृष्ण ने वे धन्य है और कृतपुण्य
WA
191ARANA.
ORamnath
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org