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2.पापानुबंधी पुण्य :- जो पुण्य नवीन पाप बंध का कारण हो अर्थात् पूर्वोपार्जित पुण्य प्रकृति के कारण वर्तमान में तो शुभ सामग्री प्राप्त हुई हो परंतु मोह की प्रबलता से असदाचारी बनकर पाप करना। आगामी भव में जो अशुभ सामग्री की प्राप्ति का कारण बने वह पापानुबंधी पुण्य है। जैसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को पूर्ण पूण्य से चक्रवर्तित्व प्राप्त हुआ किंतु तीव्र
भोगासक्ति के कारण उसे नरक में जाना पड़ा। पुण्य क्रिया किये बिना पाप क्रिया रुक नहीं सकती। जब तक जीवन में पाप क्रिया चालु है तब तक पुण्य क्रिया की आवश्यकता है। पाप आत्मा को मलिन करता है। पुण्य आत्मा को पवित्र बनाता है।
पुण्य कार्य करने में ख्याल रखना अत्यंत जरुरी है कि हमें पुण्य कार्य के बदले में किसी भौतिक सुख या पदार्थ की कामना करने की नहीं है। केवल आत्मकल्याण के शुभ उद्देश्य से ही पुण्य कार्य होता है। दूसरी इच्छा रखने से वह पुण्य का फल सीमित और संसार सर्जक बन जाता है। पुण्यानुबंधी पुण्य आत्मा को मोक्ष योग्य सभी सामग्री अनुकूलता प्रदान करके मार्गदर्शन की तरह अपनी मुद्दत तक रहकर वह वापस चला जाता है। आत्मा को वह संसार में रोक नहीं सकता। * पुण्य की हेय - ज्ञेय उपादेयता
पुण्य तत्व को खुब गहराई से समझना चाहिए। यह ऐसा तत्व है जो विविध भूमिकाओं में उपादेय (ग्रहण करना) ज्ञेय (जानना) और हेय (छोडना) बन जाता है। सर्व विरति चारित्र प्राप्ति की पूर्व भूमिकाओं में पुण्य तत्व उपादेय है क्योंकि पंचेन्द्रियत्व, मनुष्य भव, आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, सुदेव, सुगुरु - सुधर्म की सभी सामग्री आदि पुण्य के बिना प्राप्त नहीं होती। जब तक पुण्य का सहारा नहीं लिया जाता तब तक यह सामग्री प्राप्त नहीं होती। इस सामग्री के अभाव में संयम की प्राप्ति नहीं हो सकती। संयम स्वीकार करने के पश्चात् संयमावस्था में पुण्य तत्व ज्ञेय एवं उपादेय है। चारित्र की पूर्णता होने पर अर्थात् 14वें गुणस्थान में वह हेय हो जाता है, क्योंकि शरीर को छोडे बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। जैसे समुद्र के एक पार से दूसरे पार जाने के लिए जहाज पर चढना आवश्यक होता है और किनारे के निकट पहुँचकर उसका त्याग करना भी उतना ही आवश्यक है। दोनों का अवलम्बन लिए बिना पार पहँचना संभव नहीं हैं। इसी प्रकार प्राथमिक भूमिका में पुण्य तत्व को अपनाना आवश्यक है और आत्म विकास की चरम सीमा के निकट पहुँचने पर उसे छोड देना भी आवश्यक है। जहाज में बैठे हुए व्यक्ति के लिए वह ज्ञेय है और उपादेय है हेय नहीं। संसार रुपी समुद्र से पार होने के लिए पुण्य रुपी जहाज की आवश्यकता है, किंतु 14वे गुणस्थान में पहुँचाने के पश्चात मोक्ष प्राप्ति के समय पण्य हेय हो जाता है
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