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भावार्थ - हे भगवन् ! अपनी इच्छा से इर्यायपथिकी प्रतिक्रमण करने की मुझे आज्ञा दीजिए । “गुरु इसके प्रत्युत्तर में पडिक्कमेह" - "प्रतिक्रमण करो" ऐसा कहे तब शिष्य कहे- मैं चाहता हूँ, आप की यह आज्ञा स्वीकृत करता हूँ। अब मैं मार्ग में चलते समय हुई जीव विराधना का प्रतिक्रमण अंतःकरण की भावनापूर्वक प्रारंभ करता हुँ। आने जाने में किसी प्राणी को दबाकर, बीज को दबाकर, वनस्पति को दबाकर, ओस की बूंदों को, चींटियों के बिलों को पांच रंग की काई (नील - फूल) कच्चा पानी, मिट्टी, कीचड़, तथा मकडी के जाले आदि को खूंद या कुचलकर आते जाते मैंने जो कोई एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, अथवा पांच इन्द्रिय वाले जीवों को पीड़ित किया हो, चोट पहुँचाई हो, धूल आदि से ढका हो, आपस में अथवा जमीन पर मसला हो, इकट्ठे किये हों अथवा परस्पर शरीर द्वारा टकराये हों, छुआ हो, कष्ट पहुंचाया हो, थकाया हो, भयभीत किया हो, एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखा हो (विशेष क्या, किसी तरह से उनको) प्राणों से रहित किया हो, उन सब अतिचारों का पाप मेरे लिए निष्फल है। अर्थात जानते अजानते विराधना आदि से कषाय द्वारा मैंने जो पापकर्म बांधा उसके लिए मैं हृदय से पछताता हूँ, जिससे कि कोमल परिणाम द्वारा पाप कर्म नीरस हो वे और मुझे उसका फल भोगना न पड़े।
इस सूत्र द्वारा 18,24,120 मिच्छामि दुक्कडं दिये जाते हैं। वे इस प्रकार हैं
चार गति के कुल जीव (नरक 14 + तिर्यंच 48 + मनुष्य 303 + देव 198 ×
अभिहया आदि दस प्रकार
राग द्वेष के दो प्रकार
मन वचन काया के तीन योग से
करना, कराना, अनुमोदन इन तीन कारण से
भूत, वर्तमान और भविष्य तीन काल से
अरिहंत, सिद्ध, साधु, देव, गुरु और आत्मा की साक्षी से मिच्छामि दुक्क
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