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है। वह सामने तो चुप रहता है या मीठा बोलता है परंतु पीठ पीछे मच्छर की तरह कानाफूसी करता रहता है।
15. रति - अरति :- संयम में अरुचि और असंयम में रुचि रखना रति अरति है। । रति अर्थात् प्रिय संयोग में आनंद का अनुभव करना और अरति अर्थात् अप्रिय संयोग में अरुचि भाव रखना । शरीर व मन के अनुकूल विषयों के प्रति आकर्षण मोह या आसक्त होना, उन्हें प्राप्त करने की या बार- बार भोगोपभोग करने की इच्छा करना रति तथा अप्रिय, प्रतिकूल, असाताकारी विषय में उद्वेग, घृणा तथा अरुचि होना अरति है। जहाँ एक वस्तु के प्रति रति (राग) होता है, वहीँ दूसरी के प्रति अरति (द्वेष) भी होती है। इसी कारण इन दोनों को एक ही पापस्थानक माना है।
मिथ्यादर्शन
राज्य
इसमें ही सच्चा सुख है।
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16. पर
परिवाद
विकथा करना पर परिवाद है।
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दूसरों की निंदा करना,
17. माया मृषावाद :- कपटपूर्वक झूठ बोला माया मृषावाद है। झूठ स्वयं ही पाप है। यदि उसमें कपट दोष मिल जाता है तो करेला और नीम चढे जैसे दोषों के कारण यह उग्र पाप बन जाता है। वेष बदलकर लोगों को ठगना, धोखाधडी करना, विश्वासघात करना आदि माया मृषावाद का कार्य है।
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18. मिथ्यात्वदर्शन शल्य :- मिथ्यात्व युक्त प्रवृत्ति जैसे कुदेव - कुगुरु एवं कुधर्म को मानना मिथ्यादर्शन शल्य है।
देह में आत्म बुद्धि होना। स्वभाव को विभाव और विभाव को स्वभाव मानना भी मिथ्यादर्शन है। इसे समस्त पापों का मूल बताया गया है। सब अनिष्टों की जड मिथ्या श्रद्धा है। यह शल्य (काँटों) के समान दुःख देने वाले होने से मिथ्यात्व शल्य कहा जाता है।
इन 18 प्रकार की क्रियाओं द्वारा जीव को 82 प्रकार के अशुभ कर्म का बंध होता हैं। जिसका विवरण नाम कर्म के अध्याय में किया जाएगा।
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