Book Title: Jain Dharm Darshan Part 02
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 72
________________ मेधावी वृद्धि * ज्ञानावरणीय कर्म के निवारण के उपाय * * ज्ञान को विनय और बहुमान से पढ़ें, प्रतिदिन पढने पर याद न हो तो भी निराश हुए बिना माषतुष मुनि की तरह सतत पढते रहें। * ज्ञान के साधनों को सम्मान - बहुमान करें। * अपने पास जो ज्ञान है, उसे दूसरों को देने में कंजूसी न करें। * ज्ञान आराधकों (अभिलाषियों) की अनुकूलता का - ख्याल रखें। * ज्ञान भंडार, आदि का निर्माण करायें। * कार्तिक मास की सुदी पंचमी (ज्ञान पंचमी) को उपवास तप करके “नमो णाणस्स'' मंत्र का जप करने से भी ज्ञानावरणीय कर्म नष्ट होते हैं। कुष्ट रोगी वरदत्तकुमार और गूंगी गुणमंजरी ने इसी ज्ञान पंचमी के तप - जप से अपने सर्व रोगों को नष्ट किया और सुंदर एवं निर्मल क्षयोपक्षमिक बने । अन्ततः दोनों ने मोक्ष - सुख को प्राप्त किया। * दर्शनावरणीय कर्म * जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण अर्थात् सामान्य ज्ञान को आवृत्त करता है उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते है। दर्शनावरणीय कर्म को द्वारपाल की उपमा दी गई है। जिस प्रकार राजा के दर्शन के लिए उत्सुक व्यक्ति को . द्वारपाल रोक देता है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म दर्शनावरणीय कर्म परिचय । आत्मा की दर्शन शक्ति पर पर्दा डालकर उसे प्रकट होने से रोकता है और पदार्थो की सामान्य अनुभूति भी नहीं होने देता है। यद्यपि ज्ञान और दर्शन दोनो ही आत्मा के गुण है तथापि उनमें थोडा सा अंतर है। सोचने, समझने के विशेष बोध को ज्ञान और अनुभव रुप सामान्य बोध को दर्शन कहते है। उदाहरण रुप एक घडी है। यह कुछ है" - मात्र इतना अनुभव करना दर्शन है। तथा उसके आकार, प्रकार, रंग, मूल्य आदि बातों की जानकारी करना ज्ञान है। कमिश्नर 166 eronavare A

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