Book Title: Jain Dharm Darshan Part 02
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 70
________________ * ज्ञानावरणीय कर्म * ज्ञानावरणीय कर्म यानि आत्मा के ज्ञान गुण को ढंकने वाले कर्म पुद्गल का समूह | जो कर्म आत्मा के विशेष बोध को रोकता है अर्थात् जिसके कारण आत्मा सहज रुप से ज्ञान की प्रप्ति नहीं कर पाती वह ज्ञानावरणीय कर्म है। यह कर्म आँखों पर कपडे की पट्टी के समान है। जैसे आँख पर कपडे की पट्टी के बांध देने से वस्तु देखी नहीं जा सकती । उसी तरह ज्ञानावरणीय कर्म के कारण जगत के पदार्थों को वह सम्यक् रुप से नहीं जान पाता। यहा पर ध्यान देने योग्य बात यह है ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को आवरण करता है, पर उसे नष्ट नहीं करता। सभी जीवों में ज्ञान का अस्तित्व तो रहा हुआ है ही । आत्मा के ज्ञान पर कितना ही आवरण क्यो न आ जाए फिर भी अक्षर के अनंतवें भाग जितना ज्ञान हमेशा आवरण रहित रहता है। जैसे काली घटाओं से आकाश मंडल ढक जाने पर भी दिन रात का भेद जाना जा सके इतना सूर्य का प्रकाश तो रहता ही है। उसी प्रकार प्रगाढ ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होने पर भी आत्मा जड पदार्थों से अलग रह सके - अपना स्वरुप कायम रख सके, उतनी चेतना में उतना ज्ञान तो उसका अवश्य ही अनावृत रहता है। * ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच उत्तर प्रकतियाँ * PRINTERNA1. मतिज्ञानावरणीय : पाँच इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान हैं। उसे रोकनेवाला कर्म मतिज्ञानावरणीय कर्म हैं 2. श्रुतज्ञानावरणीय : शास्त्र - श्रवण, पठन आदि शब्दों के माध्यम से जो ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है। उसे रोकनेवाला कर्म श्रुतज्ञानावरणीय कर्म है। 3. अवधिज्ञानावरणीय : इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा के द्वारा मर्यादित रुपी पदार्थों का जो ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है ।' उसे रोकनेवाला कर्म अवधिज्ञानावरणीय कर्म है। 4. मनःपर्यवज्ञानावरणीय : ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के वह स्वयं के भी मनोगत भावों को जानना वह मनःपर्यवज्ञान है। उसे रोकनेवाला कर्म मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म है। REFEREUTREATURALLLL अवधिजाय पपीतजार Norn.164Rrosorry Jan Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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