Book Title: Jain Dharm Darshan Part 02
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 77
________________ 6. कषाय विजय :- क्रोध, मान, माया, और लोभ - ये चार कषाय आत्मा के आंतरिक शत्रु है, अतः इन्हें उपशांत रखते हुए इन पर विजय पाने का पुरुषार्थ करने से अवंतिसुकुमाल की तरह जीव सातावेदनीय कर्म का बंध करता है। 7. दान :- सुपात्र को आहार, वस्त्र आदि का दान करना, रोगियों को औषधि देना, जो जीव, भय से व्याकुल हो रहे हैं उन्हें भय से छुडाना, विद्यार्थियों को पुस्तकें तथा विद्या का दान करने से सातावेदनीय कर्म का बंध होता है। उदाहरणार्थ :- शालिभद्र के जीव संगम ने मुनि को निर्दोष आहार (खीर) वहोराकर सातावेदनीय कर्म बांधा, जिसके परिणामस्वरुप दूसरे भव में वह अपार ।' 3 सम्पदा का मालिक बना। अतुल वैभव एवं सुख सुविधाएं मिली तथा उन्हीं सांसारिक सुखों में लुब्ध न होकर वे मोक्ष सुख की आराधना में तल्लीन हो गए। मास खमण के तपस्वी मुनि को ग्वाले द्वारा खीर का दान 8. धर्म की दृढता :- धर्म आचरण में विपदाएं आने पर भी धर्म में शुद्ध आस्था और दृढ निष्ठा रखने से भी आत्मा सातावेदनीय कर्म बांधती है जैसे राजगृही के सुदर्शन सेठ ने बांधा राजगृह नगर में अर्जुन नामक एक माली था वह अपनी पत्नी बंधुमती के साथ प्रतिदिन यक्ष की प्रतिमा की सेवा - पूजा किया करता । एक दिन बंधुमती की सुंदरता पर मुग्ध छह मनचले पुरुषों ने मौका देखकर अर्जुन को तो रस्सी से मंदिर में ही बांध दिया और उसकी पत्नी बंधुमती के साथ दुराचार करने की कुचेष्टा की । क्रोध में आवेशित अर्जुन ने भावावेश में आकर इष्ट यक्ष को पुकारा। यक्ष उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया । अर्जुन ने फटाफट बंधन तोड़ डाले और यक्ष का मुद्गर उठाकर उन दुराचारी पुरुषों पर झपट पडा । कुछ ही देर में बंधुमती सहित छः पुरुषों की हत्या कर डाली । अब क्रोधी यक्षाविष्ट अर्जुन घूम-घूमकर प्रतिदिन छः पुरुष व एक स्त्री - सात प्राणीयों की हत्या करने लगा। एक दिन राजगृह में श्रमण भगवान महावीर पधारे। दृढसंकल्पी सुदर्शन श्रावक भगवान के दर्शन करने जाता है। मार्ग में मिलता है अर्जुनमाली ! हाथ में मुद्गर लिए मौत की तरह मारने के लिए झपटता है। सुदर्शन भगवान महावीर को भाव वंदना कर वहीं पर ध्यानस्थ हो जाता है। धर्म पर दृढ आस्था ने चमत्कार दिखाया | अर्जुन स्तंभित होकर दूर ही खडा रहा। यक्ष ANORATIN71-AA Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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