________________
.
.
.
..
.
.
..
.
.
.
.
.
.
.
.
.
अग्हिते. शरण
पव्वजामि
* दर्शनावरणीय कर्म की नौ उत्तर प्रकृतियाँ * 1. चक्षु दर्शनावरणीय :- जिसके उदय से चक्षु (नेत्र,नयन)द्वारा होनेवाले पदार्थों के सामान्य बोध का आवरण हो। 2. अचक्षु दर्शनावरणीयः- जिसके उदय से चक्षु के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों और मन के द्वारा होनेवाले सामान्य बोध का आवरण हो। 3. अवधि दर्शनावरणीय :- जिसके उदय से इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा की रुपी द्रव्यों का साक्षात सामान्य अनुभव करने की शक्ति का आवरण है।
4. केवलदर्शनावरणीय :- जिसके उदय से जगत के समस्त रुपी - अरुपी पदार्थो
का सामान्य बोध न हो। PARVA 5. निद्रा दर्शनावरणीय :- अल्प निद्रा, दाना
जिसके उदय से जीव सुख से जाग सके।
6. निद्रा - निद्रा :- गाढ निद्रा, जिसके जारी करते हुऐ पीद लेता . उदय से जीव कष्ट से जाग सके।
प्रचला
7. प्रचला :- जिसके उदय से खडे - | S : विश्व में निदान खडे या बैठे - बैठे नींद आए। 8. प्रचला -प्रचला :- जिसके उदय से रास्ते में चलते हए प्रचला-ला. भी नींद आए।
9. स्त्यानगृद्धि (थीणद्धि):- जिसके उदय से जीव दिन में थीणदिनिदा साचा हुआ कार्य नीद में करके आवें। अर्थात जिस दिला जाणीव निद्रा के उदय में प्रथम संघयणी व्यक्ति वासुदेव का दिल्ली के कारण माधु- आधा बत पा लेता है, वह सत्यानर्द्धि निद्रा है। आगम क्रोधित होने हैं।
में आता है कि एक बार कोई हाथी किसी मुनि के पीछे पड गया, इससे मुनि हाथी पर क्रोधित हो गये । वे स्त्यानर्द्धि निद्रा वाले थे, रात में नींद में उठे और अपने सोचे हुए अनुसार हाथी के दोनो दांत, सूंड
पकडकर उसे पछाड डाला | मृत - हाथी को उपाश्रय के बाहर डालकर पुनः भीतर आकर सो गये, दूसरे दिन जब गुरु महाराज को पता चला कि यह लहू लुहान
थीणद्धि निदा कैसे, तब उनको मालुम पडा कि यह साधु थीणार्द्धि वाले साधु है। फिर गुरु ने शास्त्र युक्त विधि की।
घायिक विद्यालय वोच्चार का
श्रीपदि-निद्रा
चलाने हो पीत पतना
खुरची विदयापी पी थीमारित विद्या वाले खाष्ट्रघाती चाही
+RANSL67
.
.
FORNIN67
. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Personal & Private Use Only