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YHHTIHAHI
पना
टिपट
चोरी करने पर भय, व्याकुलता, अशांति का वेदन होता है। चोरी के परिणाम स्वरुप जीव त्रिकाल में दुःख प्राप्त करता है। चोरी से पूर्व योजना बनाने में आसक्ति, तृष्णा का महादुःख, चोरी करते समय भय, कंपन, बेचैनी,
घबराहट एवं चोरी के पश्चात् इहलोक में फाँसी, कैद तथा परलोक में नीच GORधीमाधीतीवामिलामा कुल, पशु- पक्षी जीवन, नारकीय जीवन आदि में दुःख प्राप्त करता है। अश्लील साहित्य पढ़ना
4. मैथुन :- विभाव एवं विकारों में रमण करना । पाँच इन्द्रियों के फिल्दिखना
विषयों में आसक्त बनकर काम - विकार में प्रवृत्त होना, संभोग करना मैथुन है।
रति क्रीडा, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, अश्लील फिल्म देखना, तीव्र नशीले वस्तुओं का सेवन कर कामोत्तेजन करना, नग्न नृत्य देखना आदि
मैथुन के अनेक रुप हैं। 5. परिग्रह :- आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना तथा उन पर ममत्व मूर्छाभाव रखना परिग्रह है। परिग्रह दो प्रकार का बताया गया है 1. बाह्य और 2. अभयंतर। धन, धाण्य, क्षेत्र, वस्तु, सोना, चांदी, द्विपद, चतुष्पद आदि नौ प्रकार का बाह्य परिग्रह है एवं मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, तीन वेद ये चौदह प्रकार का अभ्यंतर परिग्रह है। इस प्रकार कषायों को परिग्रह की संज्ञा दी गयी है। दशवैकालिक सूत्र के अनुसार आसक्ति ही वास्तविक परिग्रह है और परिग्रह पाप का मूल कारण है। आचारंग सूत्र में कहा है :- "अर्थलोभ व्यक्ति परिग्रह ... की पूर्ति हेतु दूसरों का वध करता है, उन्हें कष्ट देना, तथा अनेक प्रकार से यातनाएँ पहूँचाता है।" अतः परिग्रह महापाप है।
6. क्रोध :- आवेश में आकर असंतुलित प्रतिक्रिया करना। किसी अप्रिय व्यवहार के कारण मन में जो उत्तेजना तथा उग्रता आती है, वह क्रोध है। अपनी मनचाही स्थिति नहीं होने पर अथवा अनचाही होने पर गुस्सा करना, खिन्न होना, गाली देना, बुरा-भला कहना, गुस्से में कर्त्तव्य - अकर्तव्य का भान भूल जाना, गुस्से से होठों का फड़कना, आँखे लाल होना आदि क्रोध के अनेक रूप हैं। 7. मान :- घमंड या अहंकार करने को मान कहते हैं।
क्रोध करना। किसी वस्तु, धन, सम्मान व कीर्ति की प्राप्ति होने पर मन में जो अहंकार का भाव आता है, वही मान है। जाति, कुल, बल, रूप, ऐश्वर्य, ज्ञान, तप और लाभ ये 8 प्रकार का मद करना। सम्मान और अभिनंदन चाहना मान के प्रकार है। मान करने वाला व्यक्ति अपने आपको श्रेष्ठ एवं अन्य को छोटा, तुच्छ समझने लगता है। जैसे लंकापति रावण द्वारा प्रयास करने पर भी सीता जब विचलित नहीं हुई, तब विभीषण आदि रावण को समझाने लगे - हे ज्येष्ठवर्य ! हमारा पक्ष अन्याय, अनीतिपूर्ण है। आप सीताजी को वापस लौटाकर युद्ध
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