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__ * जन्म कल्याणक * गर्भकाल पुरा होने पर सावन शुक्ला पंचमी की मध्य रात्री की शुभ वेला में भगवान अरिष्टनेमि का जन्म हुआ। श्री अरिष्टनेमि का जन्म होने पर छप्पन दिक्कुमारियों का आना, चौसठ इन्द्र मिलकर प्रभु का जन्माभिषेक करना इत्यादि सभी श्री महावीर स्वामी या पार्श्वनाथ प्रभु की तरह समझना।
* नामकरण *
नाम के दिन महारानी शिवा श्याम कांति वाले नवजात शिशु को लेकर आयोजन में आई। लोगों ने बालक को देखा, आशीर्वाद दिया। नाम की चर्चा में राजा समुद्रविजय ने कहा - बालक के गर्भ में आने के बाद राज्य सब प्रकार के अरिष्ट से बचा रहा है। इसकी माता ने अरिष्ट रत्नमय नेमि (चक्र की धार) का स्वप्न आया था, अतः बालक का नाम अरिष्टनेमि रखा जाए। उपस्थित जनसमूह ने उन्हें इसी नाम से पुकारा। * अरिष्टनेमि महान् योद्धा थे :
___ महाराज समुद्रविजय का नाम यादव - कुल के प्रतापी सम्राटों में गिना जाता था। उनके एक छोटे भाई थे वसुदेव। वसुदेव के पुत्र बलराम और श्रीकृष्ण थे। यादव कुल में ये तीनों राजकुमार अरिष्टनेमि, श्रीकृष्ण और बलराम अपनी असाधारण बुद्धि और अपार शक्ति एवं पराक्रम के लिए विख्यात थे। एक बार यादवों की समृद्धि एवं ऐश्वर्य की यशोगाथाएँ सुनकर प्रतिवासुदेव जरासंध ने यादवों के साथ युद्ध करने का निश्चय किया। युद्ध प्रारंभ हुआ। जरासंध के पुत्रों को यादव वीरों ने मार डाला। अपने पुत्रों को भरते देख जरासंध अत्यंत कुपित हुआ और बाण वर्षा करते हुए यादव सेना को मथने लगा। उसने बलराम पर गदा का भीषण प्रहार किया, बलराम मूर्छित हो गया। बलराम की यह दशा देख श्री कृष्ण ने क्रुद्ध हो जरासंध के सम्मुख ही उसके अवशिष्ट 19 पुत्रों को मार डाला। यह देख जरासंध कुपित हो कृष्ण को मारने दौडा। अरिष्टनेमि भी उस युद्धभूमि में उपस्थित थे। उनके लिए सर्व शस्त्रों से सुसज्जित रथ को मातलि सारथी के साथ इन्द्र ने भेजा। मातलि ने हाथ जोड़कर अरिष्टनेमि से निवेदन किया हे त्रिलोकनाथ ! यह जरासंध आपके सामने एक तुच्छ कीट के समान है। आपकी उपेक्षा के कारण यह पृथ्वी को यादव विहीन कर रहा है। प्रभो ! यद्यपि आप जन्म से ही सावध (पापपूर्ण) कार्यों से विमुख रहे हैं तथापि शत्रु के द्वारा जो आपके कुल का विनाश किया जा रहा है, इस समय आपको उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। मातलि की प्रार्थना सुन अरिष्टनेमि ने अवसर देख युद्ध की बागडोर अपने हाथ में ले ली। पौरंदर शंख का घोष किया। उस शंख के नाद से दसों दिशाएँ, सारा नभमण्डल और शत्रु काँप उठे। इस तरह अरिष्टनेमि ने अल्प समय में ही एक लाख शत्रु योद्धाओं को जीत लिया।
प्रतिवासुदेव को केवल वासुदेव ही मारता है। इस अटल नियम को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अरिष्टनेमि ने अपने रथ को मनो-वेग से शत्रु राजाओं के चारों और घुमाते हुए जरासंध की सेना को अवरुद्ध कर रखा। जरासंध और कृष्ण के बीच भयंकर युद्ध हुआ और अंत में श्री कृष्ण ने चक्ररत्न से जरासंध का सिर काटकर पृथ्वी पर लुढका दिया। अरिष्टनेमि ने भी उन सब राजाओं को मुक्त किया। वे सब उनके चरणों में नतमस्तक हो बोले - जरासंध और हम लोगों ने अपनी अपनी मूढतावश स्वयं का सर्वनाश किया है। जिस दिन आप यदुकुल में
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