Book Title: Jain Dharm Darshan Part 02
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 34
________________ __ * राजीमती की प्रव्रज्या * अरिष्टनेमि की बारात वापस लौट जाने से राजीमती की आशंका सच में बदल गई। वह अपने तन - मन की सुधि भूल रात दिन अरिष्टनेमि के चिंतन में ही डूबी रहने लगी। अपने प्रियतम के विरह में उसे एक - एक दिन एक पर्व के समान लम्बा लगता था। बारह मास एक अपलक प्रतीक्षा के बाद जब राजीमती ने भगवान अरिष्टनेमि की प्रव्रज्या की बात सुनी तो हर्ष और आनंद रहित होकर स्तब्ध हो गई। वह सोचने लगी - "धिक्कार है मेरे जीवन को, जो मैं प्राणनाथ अरिष्टनेमि के द्वारा ठुकराई गई हूँ। अब तो उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करना मेरे लिए श्रेयस्कर है। अपने माता - पिता से अनुमति प्राप्त कर वह भी अपनी अनेक सहेलियों के साथ प्रव्रजित हो गई। ___ एक बार विहार करते हुए प्रभु गिरनार पहुँचे। वहाँ से रथनेमि (अरिष्टनेमि के भाई) आहारपानी लेने गये थे, मगर अचानक बारिश आ गयी और रथनेमि एक गुफा में चले गये। राजीमती और अन्य साध्वियाँ भी नेमिनाथ प्रभु को वंदनकर लौट रही थी, बारीश के कारण सभी इधर उधर हो गयी। राजीमती उसी गुफा में चली गयी जिसमें रथनेमि थे। उसे मालूम नहीं था कि रथनेमि भी उसी गुफा में है। वह अपने भीगे हुए कपडे उतारकर सुखाने लगी। रथनेमि उसे देखकर कामातुर हो गये और आगे आये। राजीमती ने पैरों की आवाज सुनकर झट से गीला कपडा ही ओढ लिया। रथनेमि ने प्रार्थना की "सुंदरी ! आओ हम विषय सुख भोगे, भुक्त भोगी होने के पश्चात् संयम ग्रहण कर लेंगे। संयमधारिणी राजीमती बोली “ आप मुनि हैं, आप तीर्थंकर के भाई है, आप उच्च वंश की संतान है, आप अन्धकविष कुल में उत्पन्न हुए हैं अगंधन कुल में जन्मे हुए सर्प प्राणों का अंत होने पर भी वमन किये हुए को पुनः नहीं ग्रहण करते । इस कुल में उत्पन्न सर्प अग्नि में जलना पसंद करेगा पर जहर वापिस ग्रहण नहीं करता। आप जानते हो कि आपके भाई ने मुझे वमन कर दिया है फिर भी मेरे उपभोग करने की इच्छा करते हो ! इस न्याय से आपका मरना श्रेयस्कर है पर शील खण्डन करना ठीक नहीं । पुण्य योग से मिले हुए इस मुनिव्रत के अहसास को मत भूलो इत्यादि उपदेश देकर हाथी अंकुश की तरह वश कर राजीमती ने रथनेमि को संयम में स्थिर किया। रथनेमि प्रभु के सामने अपने पापों की आलोचना कर प्रायश्चित किया और श्री नेमिनाथ भगवान से 54 दिन पहले मोक्ष में गये। राजीमती भी मोक्ष पधारी। * निर्वाण कल्याणक * भगवान अरिष्टनेमि 300 वर्ष तक कुमार अवस्था में रहे। दीक्षा लेने के बाद 54 रात्रि - दिवस छद्मस्थ अवस्था में रहे। 700 वर्ष से कुछ कम वे केवली अवस्था में रहे। जीवन के अंतिम समय में 536 साधुओं के साथ वे उज्जयंत गिरि पर पहुँचे। 30 दिनों के अनशन में आषाढ शुक्ला अष्टमी की मध्य रात्री में वे अघाति कर्मों का नाश कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गये। इस प्रकार 1000 वर्षों का आयुष्य पूर्ण होने पर वे परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। E0 Sha .0028 4 000 . . . . . . . . . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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