Book Title: Jain Dharm Darshan Part 02
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 38
________________ रुकने में * क्षेत्र की दृष्टि से :- यह संपूर्ण लोक में व्याप्त है। अलोक में नहीं है, अख्यात प्रदेश वाला है। * काल की दृष्टि से :- अनादि अनंत एवं शाश्वत है। * भाव की दृष्टि से :- अमूर्त, अचेतन तथा स्वयं अगतिशील है। * गुण की दृष्टि से :- पदार्थ की गति के सहायक है। अधर्मास्तिकाय * (Medium of Rest for Soul and Matter) स्थिति सहायोअधर्म :- जीव और पुद्गल की स्थिति (ठहरने) में उदासीन भाव से सहायक होने वाला द्रव्य अधर्मास्तिकाय कहा जाता है। जैसे वृक्ष की छाया पथिक के लिए ठहरने में निमित्त कारण होती है, इसी तरह अधर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक होता है। सहायक * द्रव्य से :- एक, अखण्ड, स्वतंत्र और नित्य है। * क्षेत्र से :- संपूर्ण लोकव्यापी है, अख्यांत प्रदेशवाला है। * काल से :- अनादि, अनंत एवं शाश्वत है। * भाव से :- अमूर्त, अचेतन तथा अगतिशील है। * गुण से :- स्थिर होने में सहायक है। * आकाशास्तिकाय * (Space) आकाशास्यावगाह :- अवगाह प्रदान करना अर्थात् स्थान देना आकाश का लक्षण है। जो द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को स्थान या आश्रय देता हैं उसे आकाशास्तिकाय कहा जाता है। जैसे दूध शक्कर को अवगाह देता है अथवा भींत खूटी को अवगाह देती है | यह सब द्रव्यों का आधार भूत हैं। और सबको अपने में समाहित कर लेता है। इसके दो भेद हैं। ___ 1. लोकाकाश और 2. अलोकाकाश ___ धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव यह पाँच द्रव्य जिसमें है वह लोकाकाश हैं। जिसमें ये पाँच द्रव्य नहीं है, केवल आकाश ही हैं, वह अलोकाकाश है। * द्रव्य से :- एक, अखण्ड, स्वतंत्र, और नित्य है। * क्षेत्र से :- संपूर्ण लोक प्रमाण और अलोक प्रमाण ! लोकाकाश के प्रदेश अख्यांत है और अलोकाकाश के प्रदेश अनंत है। * काल से :- अनादि, अनंत और शाश्वत है। * भाव से :- अमूर्त, अचेतन, स्वयं अगतिशील है। * गुण से :- स्थान देना। सस्थानन्देने में। SANI सहायक लाक अलोक ....132 . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . । D AAAAM Jain Education interational For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org

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