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यह असत्य है तब पार्श्वकुमार ने अपने अनुचरों को आदेश दिया । यज्ञ-कुण्ड की जलती लकडियों को हटाकर धीरे से चीरा गया तो उसमें से अधजला एक नाग - युगल (जोडा) निकला जो पीडा से तड़प रहा था । पार्श्वकुमार ने तत्काल उन्हें नमस्कार महामंत्र सुनवाया, अरिहंत सिद्ध का शरण दिलाया। शुभ भावों के साथ प्राण त्यागकर वह नागजाति के भवनवासी देवों का इन्द्र - धरणेन्द्र बना व धरणेन्द्र की रानी पद्मावती हुई। इस प्रसंग से जनता में कमठ तापस की प्रतिष्ठा खत्म हो गई। वह क्रुद्ध होकर अज्ञान तप करता रहा । मरकर असुर कुमारों में मेघमाली देव हुआ ।
शीतकाल में पौष कृष्णा एकादशी के दिन मध्यान्ह समय विशाला नामकी पालखी में विराजकर भगवान बनारसी नगरी के बीचोबीच होकर आश्रमपद नामक उद्यान में पधारते हैं, वहाँ अशोक वृक्ष के नीचे सर्व आभूषण शरीर से उतारकर अट्ठम तप करके अपने हाथ से पंचमुष्ठि लोच किया, तदन्तर नमो "सिद्धाणं" शब्द से सिद्धों को नमस्कार करके "करेमि सामाइयं" इस प्रतिज्ञा सूत्र का पाठ बोलकर इन्द्र का दिया हुआ एक देवदूष्य वस्त्र कन्धे पर धारण कर 300 राजपुरुषों के साथ
दीक्षा अंगीकार की। उसी
समय भगवान को “मनः पर्यव” नामक चतुर्थ ज्ञान प्राप्त हुआ।
* उपसर्ग *
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* वैराग्य
एक वक्त पार्श्वकुमार सारे दिन क्रीडा कर संध्या के समय अपने आवास में आये, वहाँ दीवार पर नेमिकुमार का समग्र वृत्तान्त लिखा हुआ था कि विवाह के लिए सब यादवों के साथ तोरण के पास आये, पशुओं की पुकार सुनकर उनको बाड़े में से छुडाये, राजीमती का त्याग किया, गिरनार शैल पर दीक्षा अंगीकार की, इत्यादि पढकर वैराग्यवान् हुए, इतने ही में अपने आचारानुसार नौ लोकान्तिक देव आकर प्रभु को प्रव्रज्या के सन्मुख किये, पार्श्वप्रभु अब साम्वत्सरिक दान देने लगे।
* दीक्षा कल्याणक
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एक बार प्रभु पार्श्वनाथ वट वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग ध्यान में लीन थे । उस समय मेघमाली असुरदेव उधर से निकला। प्रभु पार्श्व को ध्यानस्थ देखकर पूर्व- भव का वैर जाग गया । उसने भगवान को ध्यान से विचलित करने के लिए अनेक प्रकार के उपसर्ग किये । सिंह, हाथी, चीता, दृष्टिविष, सर्प, बीभत्स, वैताल आदि रूप बनाकर ध्यान भंग करने के प्रयत्न किये, परंतु प्रभु ध्यान में पर्वतराज की भांति अविचल खडे रहे। तब मेघमाली असुर ने क्रुद्ध होकर मूसलाधारवर्षा प्रारंभ की। देखते ही देखते गर्दन तक पानी चढ गया।
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