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तभी धरणेन्द्र देव का आसन कंपित हुआ। वह अपने उपकारी प्रभु पार्श्वनाथ की सेवा के लिए पद्मावती देवी के साथ तुरंत प्रभु के पास पहुँचा । उसने अपने सात फनों का छत्र बनाया और शरीर की कुण्डली बनाकर कमलासन बना दिया । भगवान उस कमलासन पर जल के ऊपर राजहंस की तरह समाधिस्थ खडे रहे । धरणेन्द्र देव ने दुष्ट मेघमाली को डाँटा और प्रभु के क्षमामय / करुणामय स्वरुप का दर्शन कराया मेघमाली ने भयभीत होकर भगवान के चरणों में क्षमा मांगी।
* केवलज्ञान कल्याणक
आत्म भावना भाते हुए 83 दिन व्यतीत होने पर उष्णकाल में चैत्र वदी चौथ के दिन मध्यान्ह काल में धातकी वृक्ष के नीचे बिराजे हुए चौविहार छट्ठ तप सहित विशाखा नक्षत्र में शुक्ल ध्यान ध्याते हुए भगवान को सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। उसी स्थान पर देवताओं ने समवसरण की रचना की । भगवान ने धर्म के स्वरुप पर प्रथम प्रवचन दिया । हिंसा त्याग, असत्य त्याग, चौर्य त्याग तथा परिग्रह त्याग रुप चातुर्यामधर्म द्वारा आत्मसाधना का मार्ग दिखाया।
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* तीर्थ स्थापना
विरक्त हुए और माता महारानी वामादेवी, रानी प्रभावती आदि को भी वैराग्य जगा। सभी ने प्रभु के चरणों में दीक्षा ग्रहण की। उस समय के प्रसिद्ध वेदवाठी विद्वान शुभदत्त आदि अनेकों विद्वानों एवं राजकुमारों आदि ने भी भगवान की देशना से प्रबुद्ध होकर दीक्षा ग्रहण की। भगवान ने श्रावक - श्राविका, साधु-साध्वी रुप चार तीर्थ की स्थापना की। शुभदत्त प्रथम गणधर बने। भगवान पार्श्वनाथ के धर्मतीर्थ में कुल 8 गणधर हुए। कालांतर में पार्श्वप्रभु के 108 नाम प्रसिद्ध हुए हैं।
* निर्वाण कल्याणक
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भगवान की देशना सुनकर राजा
अश्वसेन (पिता) भी संसार से
श्री पार्श्वनाथ पुरुषादानीय 30 वर्ष तक गृहस्थावास में रहे,
83 दिन छद्मस्थ अवस्था में चारित्र पाला, 69 वर्ष 9 मास, 7 दिन केवल्य पर्याय पाली, कुल 70 वर्ष चारित्र पाल कर एक सौ (100) वर्ष की आयु पूर्ण कर 1. वेदनीय 2. आयुष्य 3. नाम 4. गौत्र इन चार अघातक कर्मों का विध्वंस कर इस अवसर्पिणी में चौथे आरे के 253 वर्ष 8 मास 15 दिन शेष रहने पर वर्षाकाल में श्रावण सुदि आठम के दिन सम्मेत शिखर पर्वत पर 33 साधुओं के साथ चौविहार मासक्षमण कर विशाखा नक्षत्र में चंद्रयोग के प्राप्त होने पर मध्यान्ह समय खडे काउसग्ग ध्यान में पार्श्वनाथ स्वामी मोक्ष पधारे।
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है।
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