Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 44
________________ जैन-भक्तिकाम्यकी पृष्ठभूमि जिन भगवान् है, वह ही आत्मा है, यह ही सिद्धान्तका सार समझो।" श्री देवसेनने' 'भावसंग्रह'में, आधारकी दृष्टिसे ध्यानके दो भेद किये हैंसालम्ब ध्यान और निरवलम्ब ध्यान । सालम्ब ध्यान वह ही है, जिसमें मनको पंचपरमेष्ठीपर टिकाना होता है। वसुनन्दि-श्रावकाचारमें ध्यानके चार भेद माने गये हैं-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत, तथा चारों ही को भावपूजा कहा गया है। पूजा भक्तिका मुख्य अंग है। उसके दो भेद है-भावपूजा और प्रव्यपूजा। भावपूजा, परम भक्तिके साथ जिनेन्द्र भगवान्के अनन्त-चतुष्टय आदि गुणोंपर मनको केन्द्रित करना है। इस भाँति आचार्य वसुनन्दिने ध्यान और भावपूजाको एक मानकर, ध्यान और भक्तिकी ही एकता सिद्ध को है। सामायिक एक ध्यान ही है। आचार्य समन्तभद्रने मनको संसारसे हटाकर आत्मस्वरूपपर केन्द्रित करनेको सामायिक कहा है। ध्यान होनेसे सामायिक १. जो जिणु सो अप्पा मुणहु इहु सिद्धतहँ सारु । योगीन्दु, परमात्मप्रकाश : परमश्रुतप्रभावकमण्डल, बम्बई, द्वितीय भाग, दोहा २१ वाँ, पृ. ३७५। २. भावसंग्रहके कर्ता देवसेन, दर्शनसारके कर्ता आचार्य देवसेनसे पृथक थे। वे विमलसेन गणिके शिष्य कहे जाते हैं। उनका दूसरा ग्रन्थ सुलोयणाचरिउ है। देखिए, पं० परमानन्द जैन शास्त्रीका लेख, 'सुलोचनाचरित्र और देवसेन,' अनेकान्त : वर्ष ७, किरण ११-१२, पृ० १७६ । ३. तम्हा सो सालंवं झायउ माणं पि गिहवई णिच्चं । पंचपरमेटीरूवं अहवा मन्तक्खरं तेसिं ॥ श्री देवसेन, मावसंग्रह : माणिकचन्द दि० जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, ३८८वाँ दोहा, पृ० ८७ । ४. पिंडस्थं च पयत्थं स्वत्थं रूववज्जियं अहवा। जंझाइज्जइ झाणं भावमहं तं विणिहिटुं॥ बसुनन्दिश्रावकाचार : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, गाथा ४५८वीं । ५. काउणाणंत चउट्टयाइ गुणकित्तणं जिणाईणं । जं बंदणं तियालं कीरइ मावच्चणं तं खु॥ देखिए वही, ४५६वीं गाथा, पृ० १३१ । अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवम् । मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके ॥ समीचीनधर्मशास्त्र : वीरसेवामन्दिर, दिल्ली, ५।१४, पृ० १४१ ।

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