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आराध्य देवियाँ
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जो पूर्व-मनमें उसका पति था, जो महात् म्र- वृक्षको छायामें आश्रित है, और जो भगवान् नेमिनाथके चरणोंमें सदैव नम्रीभूत रहती है, ऐसी मात्रा या अम्बिका देवीकी में आराधना करता हूँ ।""
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दोनों ही सम्प्रदायों में देवी अम्बिकाका वाहन सिंह स्वीकार किया गया है। दोनों ही ने देवीके दो पुत्र माने हैं। दोनों ही ने देवीके दायें हाथमें आम्र-मञ्जरी रखी है। श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें देवीके चार हाथ माने गये हैं, जब कि दिगम्बर प्रतिष्ठापाठोंमें दो हो हाथोंका उल्लेख है । वैसे ईसाकी दूसरी शताब्दीसे सातवीं शताब्दी ae afrat सभी मूर्तियोंमें चाहे वे दिगम्बरोंकी हों या श्वेताम्बरों की दो ही हाथोंका अंकन हुआ है । श्वेताम्बरोंने देवीका रूप सोनेकी चमक- जैसा माना है, जब कि दिगम्बर हरित आभावाला स्वीकार करते हैं । दिगम्बर अम्बिकाको यक्षपर्यायका बताते हैं, जब कि श्वेताम्बर उसे सौधर्म- कल्पकी देवी मानते हैं । वे afanta कोहडी कहते हैं, क्योंकि उनके मतानुसार गिरिनारके झम्पापातसे मरकर अग्निलाका जन्म कोहण्ड नामके विमानमें हुआ था । किन्तु दोनों हो देवीको भगवान् नेमिनाथकी शासनदेवीके रूपमें स्वीकार करते हैं ।
अम्बिकासम्बन्धी विविध कथाओंका तुलनात्मक विवेचन
श्रीवादिचन्द्रजीकृत 'अम्बिका कथा' के अनुसार सोमशर्मा जूनागढ़ के राजा भूपालका राज पुरोहित था । उसकी पत्नीका नाम अग्निला था । उसके शुभंकर और प्रभंकर नामके दो पुत्र थे। एक बार पितृश्राद्ध के दिन सोमशर्माने अन्य ब्राह्मणका निमन्त्रण किया, किन्तु उसके पूर्व हो अग्निलाने ज्ञानसागर नामके जैन मुनिको विधिवत् आहार दे दिया, जिससे कुपित होकर सोमशर्माने उस स्वेच्छाचारिणी स्त्रीको घरसे निकाल दिया । वह दोनों पुत्रोंको लेकर गिरिनगर पर्वतपर चली गयी, और वहीं आम्रवनमें रहने लगी। जब पुत्रोंको भूख लगी तो मुनि आहारके पुण्यसे शुष्क आम्रवृक्ष फलोंसे युक्त हो गया । उसकी शाखाएँ
१. धत्ते वामकहौ प्रियङ्करसुतं वामे करे मन्जरी आम्रस्यान्यकरे शुमकूर तुजौ हस्तं प्रशस्ते हरौ । आस्ते मर्तृचरे महाम्रविटपिच्छायंश्रिताऽभीष्टदा isit at ga नेमिनाथपदयोर्नग्रामिहाब्रां यजे ॥ पं० नेमिचन्द्र, प्रतिष्ठा तिलक : ७।२२ ।
मथुरा, लखनऊ और प्रयागके मूर्त्ति संग्रहालयों की मूर्तियोंसे स्पष्ट है।
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