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जैन-भक्तिकान्यकी पृष्ठभूमि - इस उपर्युक्त कथासे स्पष्ट है कि कुरुकुल्ला तान्त्रिक युगकी देन है। बह सपोंकी देवी है । मन्त्रसे उसका सीधा सम्बन्ध है। गुरुदेवसूरिको मन्त्रशक्ति ऐसी प्रबल थी कि बड़े-बड़े भयंकर सर्प भी उनका सामना न कर सके। यह शक्ति देवी कुरुकुल्लाको कृपासे हो सुरक्षित रह सकी। देवी कुरुकुल्लाकी भक्ति .. बानरों और कच्छपोंको कमल बना देना, व्यालपालीको मालती लता कर देना, दावाग्निको तुहिनकणोंमें बदल देना और ग्रीष्मकालको माघ बना देना देवीके लिए बहुत आसान है। उसने न जाने कितनी बार सूर्यके प्रचण्ड तापको चन्द्रकी शीतलतामें, समुद्रके खारे पानीको दूध और विषको अमृतमें परिवत्तित किया है। देवी अपने भक्तोंकी विषमताओंको उपशम करती है, और भक्त उसको माताका प्रसाद समझता है।
देवी कुरुकुल्लाको उदारता प्रसिद्ध है। एक बार नाम सुनना-भर ही पर्याप्त है। देवीके पवित्र नाममें इतनी शक्ति है कि उसके श्रुति-पथमें आते ही, विषमसे विषम आपत्ति तुरन्त नष्ट हो जाती है। वह कुरुकुल्ला देवी तीनों लोकोंमें पूज्य है। उसका दर्शन मनुष्यको लौकिक और अलौकिक दोनों ही प्रकारको सम्पत्ति वितरित करने में समर्थ है।
देवी कुरुकुल्लापर जमा ध्यान कभी व्यर्थ नहीं गया । ध्यान लगाते ही जलती ज्वालाकी भांति तेजस्वी और मृगेन्द्रकी भांति उद्दाम संग्राम-शत्रु, नाशको प्राप्त हो जाता है। यदि किसीने देवीकी अभ्यर्चना कर ली, फिर तो उसका
१. कमलति कपिकच्छालति व्यालपाली
तुहिनति वनवहिर्मापति ग्रीष्मकाल: । शिशिरकरति सूरः क्षीरति क्षारनीरं विषममृतति मातस्त्वत्प्रभावेन पुंसाम् ॥ २ ॥ श्रीदेवसूरि ( ११वी, १२वीं शती ) कुरुकुल्लादेवी-स्तवनम् : जैन स्तोत्रसमुच्चय : पृष्ट २३१। श्रुतिपथगतमुच्चै म यस्याः पवित्रं विषमतमविषात्ति नाशयस्येव सद्यः । त्रिभुवनमहिता सा सम्मुखीभूतदेवी षितरतु कुरुकुल्ला सम्पदं मे विशालाम् ।। देखिए वही : चौथा श्लोक, पृ. २३२ ।