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माराध्य देवियाँ ..
११ विकास चारों ओरसे होता है। धन, पुत्र, स्वास्थ्य और अन्य सौभाग्य द्रुतगलिसे माते हैं। . ..
. देवीके एक बार प्रसन्नतापूर्वक देख लेनेसे ही भक्त सब कुछ पा जाता है । वह एक ओर श्रुतका पारगामी विद्वान् बन जाता है, तो दूसरी ओर देश-परदेश जीतकर विश्व-लक्ष्मीका उपभोग करता है। विद्वत्ता और साम्राज्य-लक्ष्मीका समन्वय देवीके एक कटाक्षमात्रसे ही सम्भव है ।
देवीकी शक्ति महान् है । सुभटोंके हाथोंमें चमकते शस्त्र, देवीकी अपार शक्तिसे हो सञ्चालित होते हैं । देवीकी भक्तिमें तल्लीन राजाओंकी ताकत, मन्त्रकी भांति अजेय बन जाती है । दुनियामें राजा तो बहुत होते हैं, किन्तु उनमें देवीके बरदानको पानेवालोंको ही शक्ति अक्षयरूप धारण कर पाती है। देवीकी महिमाको कोई कह नहीं सकता। देवी अग्निकी महाप्राण-शक्तिका साक्षात् रूप है । देवीका यह तेज बाहरी नहीं, किन्तु आभ्यन्तरिक है, विशुद्ध आत्मासे फूटा है, अतः अमर है । हम उसे जैनेन्द्र-शक्ति कहते हैं । वह त्रिलोकके द्वारा पूज्य है।
सम्पर्ण इन्द्रियोंका निरोध कर जो व्यक्ति 'महोद्योतरूपा' देवीका अपने पवित्र मनमें ध्यान करता है, उसका जाड्यान्धकार अर्थात् अज्ञानका तमस् विलीन हो
१. ज्वलनजलमृगेन्द्रोदामसंग्रामशत्रु
प्रभृतिकमपयाति स्वद्गतध्यानमात्रात् । धनतनयशरीरारोग्यसौभाग्यभाग्यादिकमुपचयमेत्यभ्यर्चनात् तावकोनात् ॥
देखिए वही : ५वा श्लोक, पृ० २३२ । २. कियति महति दूरे स्वमतानां श्रुतश्रीः
कथमिव दुरवापा तैर्जगज्जैनलक्ष्मीः । असुलममिह किंवा वस्तु तेषां समस्तं त्रिभुवनजननि ! त्वं वीक्षसे यान् प्रसन्ना ॥
देखिए वही : ६ठा श्लोक, पृ० २३२ । ३. सुमटकरतो त्वं शस्त्ररूपाऽसि शक्ति
स्त्वमवनिपतिषच्चैदेवि! मन्त्रादिशक्तिः। किमपरमनिलादौ त्वं महाप्राणशक्तिः सकलभुवनपूज्या स्वं च जैनेन्द्रशक्तिः ॥ देखिए वही वाँ श्लोक, पृ० २३२ ।