________________
आराध्य देवियाँ
redit पुकार कभी व्यर्थ प्रमाणित नहीं हुई । पुकार तो दूरकी बात है, देवीका एक बार नाम लेना हो पर्याप्त है। रैवतक गिरिपर निवास करनेवाली वह देवी अपना नाम लेनेवालेके समूचे पापको क्षण-भर में नष्ट कर देती है । उसकी उदारता सराहनीय है, वह सच्चे अर्थों में जगत्स्वामिनी हैं।' माँकी ममतासे उसने जगत् के हृदयोंको जीता है। उसकी जय-जयकार करते हुए कोई कभी थकता नहीं । मी 'ॐ ह्रीं' मन्त्र रूप है, इसी लिए कल्याणकी साक्षात् मूर्ति है, और संसारके प्राणियोंकी रक्षा करनेमें समर्थ है। मांके वक्षस्थलपर स्फुरायमान तारहारावली और कानों में हिलते कर्णताटङ्क, मानो हिल-हिलकर माँके रम्य हृदयकी ही घोषणा कर रहे हैं । वह माँ वरदा है, कल्पलता, स्तुतिरूपा और सरस्वती है। मौके पादाग्रमें भक्त झुके हो रहते हैं। माँ भी अतुल फलोंसे उनके शुष्क हृदयोंको सरस बनाती है । माँके हाथका आम्र-लुम्बक मौके पल्लवित वात्सल्यका ही प्रतीक है ।
२
दूसरी ओर माँका विकराल रूप भी है, जिसके द्वारा वह दुष्टोंका संहार करती है । तामसिकताका उन्मूलन करना भर ही देवीका उद्देश्य नहीं है, किन्तु यह तो सात्विकताको स्थापित करनेका एक उपाय मात्र है । माँका लक्ष्य दिव्य है । तामसिकताका नाश होना ही चाहिए । तामसिकता के प्रतीक भूत, राक्षस और पिशाचोंको विदीर्ण कर, देवी युग-युगमें शान्ति, धृति, कोति और सिद्धिकी स्थापना करती रही है। वह अपने खर नख दंष्ट्रोंसे शत्रुओं१. पिङ्गतारोत्पतद्भीमकण्ठीरवे नाममन्त्रेण निर्णाक्षितोपद्रवे ।
raaraतर रैवतकगिरिनिवासिनि अम्बिके ! जय जय स्वं जगत्स्वामिनी ॥ देखिए वही : श्लोक २ ।
२. ॐ ह्रीं मन्त्ररूपे शिवे शङ्करे अम्बिके देवि ! जय जन्तुरक्षाकरे । स्फुरतारहारावलीराजितोरःस्थले कर्णताटङ्करुचिरम्यदस्थले || देखिए वही : श्लोक २ ।
३. वरदे ! कल्पवल्लि ! त्वं स्तुतिरूपे ! सरस्वति ।
पादाप्रानुगतं मतं लम्मयस्वातुलः फलैः ॥
:
महामात्य वस्तुपाल ( मृत्यु ई० १२४१ ), अम्बिकास्तवनम् ९वाँ दोहा, देखिए वही : पृ० ९५ ।
४. स्तम्भिनी मोहिनी ईश उच्चाटने
क्षुद्रविद्राविणी दोषनिर्णाशिनी । जमिनी भ्रान्ति मूतग्रहस्फोटिनी शान्ति धृति- कीर्ति-मति सिद्धि संसाधिनी ॥
जिनेश्वरसूरि, अम्बिकादेवी-स्तुति: श्लोक ३, देखिए वही,
१५९
पु० ३६ ।