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जैन-मतिकाव्यको पृष्ठभूमि जनरूप है। वि० सं० १२३७ के एक छोटेसे लेखसे प्रमाणित हो गया है कि, महिषासुरमर्दिनीका हो दूसरा नाम सच्चिका भी था', और ओसियांके वि० सं० १६६५ के एक शिलालेखके अनुसार चामुण्डाको ही सच्चिका कहते हैं। इसका रूप भयानक था। पशुओंकी बलिसे ही तृप्त होती थी। सच्चियाकी भक्ति
विक्रमकी १३वीं शताब्दीके श्री रत्नप्रभसूरिजीने जैनोंको, देवीके मन्दिर में जानेसे इनकार कर दिया था। किन्तु जैन जनताने विनम्रतापूर्वक सूरिजीकी आज्ञाको अवहेलना की। उसे डर था कि कहीं यह प्रबल देवी अपनी उपेक्षासे क्रोधित हो हमको और हमारे परिवारको ही नष्ट न कर दे। भारतका जन-मन सदैव एकधारासे अनुप्राणित होता रहा है। चाहे वह जैन हो या हिन्दू । जैन मूर्तियों के परिकरमें गणेशजीको बहुत पहले ही शामिल कर लिया गया था । अम्बिकाके बायीं ओर प्रायः गणेशजीको लड्डू खाते हुए दिखाया जाता है । जूनाफे शिलालेखसे स्पष्ट है कि भगवान् आदिनाथके मन्दिर में विघ्न१. जोधपुर संग्रहालय में संगृहीत एक महिषासुरमर्दिनीकी श्वेत संगमरमर
की प्रतिमाके नीचे चौकीपर यह लेख उत्कीर्ण है।
जैनसिद्धान्तमास्कर : भाग २१, किरण , पृष्ठ ४ । २. "चामुण्डा को सिचियाय करी रत्नप्रभसुरजी ने"
देखिए वही : पृष्ठ ५। ३. अतः प्राचार्येण प्रोक्तः भो यूयं श्राद्धा तेषां देवीनां निर्दयचित्ताया
महिषवोस्कटादिजीववधास्थिमंगशब्दश्रवणकुतूहलप्रियया अविरतायाः रकांकितभूमितले आईचर्मबद्धवन्दनमाले निष्ठुरजनसेवितं धर्मध्यानविधायके महाबीभत्सरौद्रे श्रीसश्चिकादेवि गृहे गन्तुं न बुध्यते ।
उपकेशगच्छ पट्टावली समुच्चय : भाग १, पृष्ठ १८७ । ४. आचार्यवचः श्रुत्वा ते प्रोचुः-प्रमो, युक्तमेतत् परं रौद्रादेवी यदि छलि..ज्यामस्तदा सा कुटुम्बान् मारयति ।
देखिए, वही : पृ० १८७ ।। ५. B. C. Bhattacharya, The Jain Icnography, Lahor, p.
181-82. ६. Ds. V. S. Agrawal, Mathura Museum catalogue, Part III,
No. D7, p. 31-32.