Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 189
________________ भाराच्य देवियाँ को दुष्टग्रहसे प्रपीड़ित देखकर, मुनीन्द्र हेलाचार्य व्याकुल हुए मोर कुछ समय लिए किंकर्तव्यविमूढ़-से रह गये । फिर उन्होंने समीपस्थ नीलगिरिपर विधिपूर्वक afghant साधना आरम्भ की । सात दिनके बाद देवीने दर्शन दिये और मुनिसे पूछा कि हे आर्य ! कहो तुम्हारा क्या कार्य है ? मुतिने कहा कि हे देवी ! 'कामाaffe फलसिद्धि' के लिए मैंने आपका आमन्त्रण नहीं किया है, किन्तु इस लिए कि आप कमलश्रीको दुष्टग्रहसे मुक्त करें । देवीने उत्तर दिया कि माप खेद न करें, यह तो कोई बड़ा काम नहीं है । तदुपरान्त उसने मुनिको 'मृदुतरआयासपत्र' पर लिखा हुआ एक मन्त्र प्रदान किया, और मुनिकी भक्ति से प्रसन्न होकर मन्त्रको सिद्ध करनेवाली विद्या भी बतलायी। उसके अनुसार किसी नीरव स्थानपर मन्त्र का जाप करनेसे राक्षसकी बाघा उपशम हो गयी । १६० कन्नड़ भाषा प्रामाणिक ग्रन्थ मुनिवंशाभ्युदयकी ( ई० सन् १६७२-१७०४) पाँचवीं सन्धिके ११६ वें पद्यसे विदित होता है कि श्री प्रभाचन्द्र मुनिने ज्वाला - मालिनी देवीको साधना कर अनुपम ख्याति प्राप्त की, तथा नाना प्रकारसे Gaeist प्रभावना कर, धर्मको उन्नत बनाया। मुनि प्रभाचन्द्र ईसाकी तेरहवीं शताब्दी विद्वान् कहे जाते हैं । २ 3 साहित्य ૪ विद्यानुवाद नामके चौदहवें पूर्व में ज्वालामालिनी कल्पकी भी रचना हुई थी । मुनि सुकुमारसेनके विद्यानुशासनमें जो चार कल्प निबद्ध हुए हैं, उनमें एक ज्वालामालिनीकल्प भी है। मुनि हेलाचार्य ( वि० सं० ९९६ से पूर्व ) ने भी देवीके आदेशानुसार एक 'ज्वालिनीमत' नामके ग्रन्थका निर्माण किया था। इसका निर्माणस्थल मलय देशका हेम नामक ग्राम माना जाता है। गुरु-परम्परासे चले आये इस ग्रन्वको आचार्य इन्द्रनन्दिने सुना और समझा । ग्रन्थ क्लिष्ट था, उसे सुगम बनानेके लिए आचार्यने उसी अर्थको ललित आर्या और गीतादि छन्दोंमें निबद्ध कर १. देखिए वही : इलोक ५-२०, पृ० १३५-३७ । २. जैन सिद्धान्तमास्कर : भाग १७, किरण १, पृ० ४७ । ३. श्री पं० नाथूराम प्रेमीने 'कर्नाटक कवि चरित' द्वि० मा० के आधारपर प्रभाचन्द्रका समय १३वीं शताब्दी अनुमान किया है। देखिए जैन- साहित्य और इतिहास : बम्बई, पृ० ३७८ । देव्यादेशाच्छास्त्रं तेन पुनर्व्वालिनोमतं रचितम् । इन्द्रनन्दियोगीन्द्र, ज्वालिनीकल्प : २२वाँ श्लोक, जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह दिल्ली, पृ० १३७ ।

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