Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 186
________________ जैन-भक्तिकाव्यको पृष्ठभूमि देवीका मन द्रवणशील है । उसकी उदारता प्रसिद्ध है । तपाये हुए सोनेको भाँति देवोक्रे चेहरे में से जो कान्ति फूटती रहती है, वह उदारताको ही प्रतीक | देवोने अपना भक्त होनेकी शर्त कभी नहीं लगायी। कोई भी अच्छा व्यक्ति देवोका वरदान पानेका अधिकारी है । देवीके वरदानोंमें मन्त्र-जैसी स्फूर्ति होती है, और शीघ्र ही वे अपना फल प्राप्त करा देते हैं। उनसे लक्ष्मी तो मिलती ही है, कीति भी चारों ओर फैल जाती है। उनसे जन-मन प्रेम तथा सन्तोष उपलब्ध कर पाता है । हम देबीको महामन्त्र -मूर्ति कहते हैं ।' ។ देवी चक्रेश्वरी वज्र जैसी कठोर और पुष्पकी भाँति कोमल है। दोनोंका समन्वय उसको उदारताका ही द्योतक है । देवीके इस समन्वयको एक श्लोक सुन्दर ढंगसे उपस्थित किया गया है। भक्त कहता है, "श्रेष्ठ चक्रको घुमाती हुई देवी चक्रेश्वरी यदि सुभीमा है तो शशधर-धवला भी, यदि कराला है. तो वरदा भी, यदि रुद्रनेत्रा है तो सुकान्ता भी; यदि तीनों लोकोंको डराती है, तो अपने तत्त्वतेजके प्रकाशसे आनन्दित भी करती है, और यदि वह विषम विषसे युक्त है तो अमृतसे भी उपेत है । इस भाँति देवी दुष्टोंके दमनके लिए सुभीमा, कराला, रुद्रनेत्रा, भीषयन्ती और विषमविषयुता है, तथा सज्जनोंके लिए शशघर-घवला, वरदा, सुकान्ता, तत्त्वतंत्रः प्रकाशि और अमृतोपेता है । देवीके इसी • रूपपर भक्त मोहित हुआ है और 'पाहि मां देवि' को रट लगा दी है । 2,1 148 Rees चक्रदेवी भ्रमसि जगति दिकचक्र-विक्रान्तकीर्त्तिfioria विघ्नयन्ती विजयजयकरी पाहि मां देवि ! चक्रे ! ॥२॥ जैनस्तोत्रसमुच्चय : अमरविजयमुनिसम्पादित, बम्बई, सन् १९२८, श्रीचक्रेश्वरीदेवी-स्तुति : पृ० १४१ | श्रीं श्रीं ॐ श्रः प्रसिद्धे ! जनितजनमनः प्रीतिसन्तोषलक्ष्मीं श्रीवृद्धि कोर्त्तिकान्ति प्रथयसि वरदे ! त्वं महामन्त्रमूर्तिः । त्रैलोक्यं क्षोभयन्तोमसुरभिदुरहुङ्कारनादैक भीमे को क्ली द्रावयन्तो हुतकनकनिभे पाहि मां देवि चक्रे ।। ३ ।। वही : पृ० १४१ । वज्रक्रोधे ! सुभीमे ! शशधरधवले ! भ्रामयन्ती सुचक्रं राँ रौँ हः कराले ! भगवति ! वरदे ! रुद्रनेत्रे ! सुकान्ते !! आँ हूँ ॐ भीषयन्ती त्रिभुवनमखिलं तरवतेजः प्रकाशि क्षक्ष धुँ क्षोभयन्ती विषमविषयुते ! पाहि मां देवि चक्रे ।। ४ ।। देखिए वही : पृ० १४२ । ww

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