Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 177
________________ आराध्य देवियाँ योगिक देवदास हुआ । कर्मानुसार उसे देवीके वाहनका काम करना पड़ता था 1 श्रीजिनप्रभसूरिने 'अम्बिकादेवी -कल्प' में यह हो कथा प्राकृत भाषामें दी है । कथानक तो एक है ही, नामों आदिमें भी अन्तर नहीं है । प्रभावकचरितमें भी aferret कथा कुछ नाम-भेदोंके अतिरिक्त वह ही है । एक 'अम्बिकादेवी रास' कविवर देवदत्तने, वि० सं० १०५० के लगभग, अपभ्रंश भाषा में, रचा था। किन्तु वह अभी तक अनुपलब्ध है, अतः उसकी कथा के विषयमें कुछ कहा नहीं जा सकता । देवी अम्बिकाकी मूर्तियाँ * १५५ 3 । अम्बिकाको प्राचीन मूत्तियाँ उदयगिरि और खण्डगिरिको नवमुनिगुफाओं तथा काठियावाड़में दंककी गुफाओंसे प्राप्त हुई हैं। इनका रचनाकाल ईसवी द्वितीय और सातवींके मध्य माना जाता है। मथुराके कंकाली टीलाकी खुदाइयोंमें अम्बिकाकी अनेक मूर्तियाँ मिली हैं, जो ईसवी द्वितीय और सातवीं के बीच कभी बनी थीं। ये सब मथुरा-संग्रहालय में संकलित हैं । उनमें भी अंक 'D 7' को मूर्ति सर्वाधिक प्रसिद्ध और कला-पूर्ण है । डॉ० वासुदेवशरण अग्रवालने उसको गुप्त युगका माना है । यह द्विभुजी मूर्ति सिंहपर बैठी है, बायों गोद में एक बालक है, जो मूर्तिके गले में पड़े हारसे खेल रहा है बायें हाथमें आम्र- लुम्बक - हैं, जो कुछ टूटा हुआ है। दूसरा बालक दायीं ओर खड़ा है। आम्रवृक्षके नीचे उत्कीर्ण की गयी है । दायें किनारेपर हाथमें लड्डु जी और दूसरी ओर श्री कुबेर 'विराजमान' हैं । देवीके ऊपर ध्यान मुद्रा में बैठे हुए तीर्थंकर की मूर्ति है। इसके अतिरिक्त 'F 16' की मूर्ति भी अम्बिका देवीको ही है, जो कुशाण-युगमें बनी थी । '१०४८' और '१०५७' की भी मूर्तियाँ अम्बिकाकी ही हैं, जो पूर्व मध्य युग में निर्मित हुई थीं । यमुनासे निकली हैं। संख्या ३३८२ की मूर्ति मथुरा नगरसे ११ मील दक्षिण, बेरी नामक गाँवसे लायी गयो है । यह प्रतिमा दो स्तम्भोंके बीचमें उत्कीर्ण है । वह ललितासनपर बैठी यह मूर्ति एक लिये श्री गणेश १. बप्पट्टसूरि, चतुर्विंशतिका : अम्बिकादेवी-कल्प : पृ० १४८-१५० / २. कविवर देवदप्त; अपभ्रंशके प्रसिद्ध कवि वीर (वि० सं० १०७६) के पिता थे। ३. जैन सिद्धान्तभास्कर : भाग २१, किरण १, पृ० ३४ । 8. Dr.V.S. Agrawal, Mathura Museum, Catalogue, Part-lll, p. 31-32. ५० देखिए वही : पृष्ठ ५५ । ६. देखिए वही पृष्ठ ६७ ।

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