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जैन-भक्तिकान्यकी पृष्ठभूमि करता हूँ।'' इसो पर्वतके जिनेन्द्र-बिम्बोंसे व्याप्त देवकुल्य देवालय, अर्चकोंको सदैव प्रसाद बाँटा करते हैं । अर्थात् वे जिनेन्द्र-बिम्ब अर्चकोंको मनोनीत वरदान प्रदान करते हैं।
श्री देवेन्द्रसूरिन अपने 'शाश्वत चैत्य-स्तव में त्रिलोकके अकृत्रिम चैत्यालय और उनमें विराजित जिन-बिम्बोंको संख्या दी है, और अन्तकी गाथामें सबको ही नमस्कार किया है । देवेन्द्रमूरिके शिष्य श्री धर्मघोषमूरिन 'चतुर्विंशतिस्तुति' में लिखा है, "श्रीमन्नन्दीश्वरद्वीपके बावन चैत्यालयों में ऐसी अद्वितीय प्रतिमाएं हैं, जिनके सम्मुख अच्युत सदैव प्रणत होते रहते हैं और जिनको इन्द्र स्तुति करते हैं।"
. श्री मदनकोतिने विन्ध्यगिरि के पुराने जिनालयोंकी वन्दना करते हुए लिखा है, "विन्ध्यगिरिपर अगणित जिन-मन्दिर विद्यमान हैं, जिनकी इन्द्र भी पूजा करते हैं। उनकी भक्ति करनेवाले सम्यग्दृष्टि मनुष्योंको, वे आज भी प्रत्यक्षकी भांति प्रतिभासित होते हैं।" १. यस्मिनपापाख्यमठे प्रभूताश्चिरन्तनीश्च प्रतिमाः प्रणम्य ।
छिन्दन्ति पापानि निजानि लोका वन्द सदा तं गिरिमुजयन्तम् ।। श्री रत्नकीतिसूरि, गिरिनारचैत्यपरिपाटो-स्तवन : जेनस्तोत्रसमुच्चय :
बम्बई, श्लो० ८, पृ० २५५ । २. श्रीमूलदेवालयदेवकुल्यो जिनेन्द्रबिम्बैः परितः परीताः ।
यत्रार्चकभ्यो ददते प्रसादं वन्द सदा तं गिरिमुजयन्तम् ।।
देखिए वही : श्लोक ९, पृ० २५५ ।। ३. सिरिभरहनिवइपमुहेहि जाइं अन्नाइं इत्थ विहिआई।
देविन्दमुणिन्द थुआई दिन्तु भवियाण सिद्धिसुहं ।। श्री देवेन्द्रसूरि, शाश्वतचैत्यस्तवः, जैनस्तोत्रसन्दाह : प्रथम भाग, अह
मदाबाद, १९३२ ई०, पद्य २४, पृ० १०५ । ४. श्रीमन्नन्दीश्वरद्वीपेऽप्रतिमाः प्रणुताऽच्युताः ।
द्विपञ्चाशति चैत्येषु प्रतिमाः प्रणुताऽच्युताः ।। श्री धर्मघोष सूरि, चतुर्विंशति जिनस्तुतयः, जैनस्तोत्रसन्दोह : प्रथम भाग, महमदाबाद, १९३२ ई०, पद्य ३३, पृ० २५४ । गरि विधासुरेकमनसी भक्ति नरस्याऽधुना
येऽपि विदिता जैनेन्द्रबिम्बालयाः। निर्मलदृशो देवेश्वराऽभ्यर्चिता (ऽतिमहिते दिग्बाससां शासनम् ॥ सनचतुस्त्रिशिका : श्लोक ३२, पृष्ट २३ ।
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