Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 169
________________ मासभ्य देवियाँ गणधरके प्रसादसे एक ऐसा श्लोक लायी, जो 'विलक्षण' के कदर्थनका मूलाधार बना।" वि. सं. १६०८ में पं० जिनदासने होलोरेणुका-चरितको रचना की थी, जिसकी प्रशस्तिसे विदित होता है कि उसके पूर्वज हरिपतिको देवी पपावतीका वर प्राप्त था। _ देवी पद्मावती-सम्बन्धी स्तोत्र-साहित्य भी विपुल है। जनस्तोत्र-सन्दोहके 'घ' परिशिष्टमें एक 'पद्मावत्यष्टक' निबद्ध है, जिसकी वृत्ति श्री पाश्वदेवगणिने रची है। पार्श्वदेवगणिका समय वि. सं. ११७१ माना जाता है। सूरतवाले भैरव-पद्मावती-कल्पके पृष्ठ ९९-११२ तक 'पद्मावती सहस्रनाम-स्तोत्र' दिया है। इसमें देवी पद्मावतीकी १००८ नामोंसे स्तुति की गयी है। इसके उपरान्त वहाँपर हो पृष्ठ ११४ पर पद्मावती-कवच, पृष्ठ ११५ पर पद्मावती-स्तोत्र, पृष्ठे ११७ पर पद्मावतीदण्डक-स्तोत्र, पृष्ठ ११८ पर पद्मावती-स्तुति और पृष्ठ १२१ से १२७ तक यन्त्र-मन्त्रगर्भित पद्मावती-स्तोत्र दिया गया है। यह अन्तिम स्तोत्र ३५ संस्कृत श्लोकोंमें समाप्त हुआ है । 'भैरव-पद्मावती-कल्प में दिये गये इन विभिन्न स्तुतिस्तोत्रोंके विषयमें श्री. एम. के. कापड़ियाने लिखा है, "इस ग्रन्थके साथमें हमने विचार किया कि पद्मावती-सहस्रनाम, स्तोत्र, छन्द, पूजा आदि रख दिये जायें तो क्या ही अच्छा हो, अतः हमने सूरतके जूनेमन्दिर, गुजरातीमन्दिर व मेवाड़ा मन्दिरोंसे ऐसे हस्तलिखित शास्त्र प्राप्त किये।" . भगवान् पार्श्वनाथ-सम्बन्धी अतिशय तीर्थक्षेत्रोंके उद्भवमें देवी पद्मावतीका ही हाथ रहा है । श्रीपुरके पार्श्वनाथका लोक-विश्रुत प्रभाव श्री पद्मावती देवीके ही कारण हो सका, ऐसा श्रीपुर-अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ-कल्पसे स्पष्ट है। श्रीमती शारलट क्राउजेने 'एन्शियण्ट जैन हिम्स' में 'संखेश्वरपार्श्वनाथ-स्तवन' को संकलित किया है। इस स्तवनके मूल लेखक श्री नयविमलसूरि हैं। इसके ९वें १. जैन शिलालेख संग्रह : प्रथम भाग, पृष्ठ १०१। २. पूर्व हरिपतिर्नाम्ना लब्ध-पद्मावती-वर:। पेरोसाहि नरेन्द्राप्त-सत्पण्डितपदोऽप्यभूत् ॥ .. होलीरेणुकाचरित-प्रशस्ति : अन्त भाग, जैनप्रध-प्रशस्वि-संग्रह: वीरसेवा मन्दिर, दिल्ली, श्लोक २९, पृ ६४ । ३. जैनस्तोत्र सन्दोह : प्रथम भाग, परिशिष्ट, पृ०७०। ४. देखिए वही : प्रस्तावना, पृ. ३० । ५. भैरव-पद्मावती-कल्प : सूरत, निवेदन, पृ० ५।। ६. जिनप्रभसूरि, विविधतीर्थकरूप : पृ० १०२।


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