________________
DR..
जैन-भक्तिके भेद
आचार्य कुन्दकुन्दके बोधप्राभृतको ९वों गाथाकी व्याख्या करते हुए, पं. जयचन्द छाबड़ाने लिखा है, "चैत्य-भक्तिसे सातिशय पुण्य बन्ध होता है, जो क्रमशः मोक्षका कारण बनता है ।'' आचार्य पूज्यपादने भी कृत्रिम और अकृत्रिम सभी चैत्यालयोंकी 'भूयांसि भूतये' वन्दना की है। चैत्यालयोंकी स्तुति करते हुए उन्होंने लिखा है, "तीन लोकोंमें, तीर्थंकर परमदेवके जितने भी चैत्यालय है, उन सबको मैं, संसारकी दुःखरूपी अग्निको शान्त करनेके लिए नमस्कार करता है।" उन्होंने भगवान् जिनेन्द्रदेवकी प्रदीप्त प्रतिमाओंको भी अलिबद्ध होकर नमस्कार किया है।
'चेइयवंदणमहाभासं में श्रीमच्छान्तिसूरिने लिखा है कि जिन-प्रतिमाओंके सम्मुख प्रणिपात करते हुए सिद्धोंको इस प्रकार नमस्कार करना चाहिए, "जो सिद्ध हो चुके हैं, आगे होंगे और अभी वर्तमान हैं, उन सबकी त्रिविधि वन्दना करता हूँ।"" __श्री कीतिरत्नसूरिने 'गिरिनारचैत्यपरिपाटी-स्तवन' में लिखा है, "जिस ऊर्जयन्त पर्वतके अपापाख्य मठमें विराजमान बहुत प्राचीन प्रतिमाओंको प्रणाम करने मात्रसे ही, मनुष्योंके पाप दूर हो जाते हैं, उस ऊर्जयन्तगिरिको मैं वन्दना १. प्राचार्य कुन्दकुन्द, बोधपाहुड : अष्टपाहुड : गाथा ९ का पं० जयचन्द
छाबड़ा कृत हिन्दी अनुवाद । २. यावन्ति सन्ति लोकेऽस्मिनकृतानि कतानि च ।
तानि सर्वाणि चैत्यानि वन्दे भूयांसि भूतये ।। आचार्य पूज्यपाद, संस्कृत चैत्यभक्ति : दशभक्त्यादिसंग्रह : श्लोक १,
पृ० २३३ । ३. भुवनत्रयऽपि भुवनत्रयाधिपाभ्यर्यतीर्थकर्तणाम् ।
वन्दे भवाग्निशान्त्यै विभवानामलयालीस्ताः ।।
देखिए, वही : श्लोक ९, पृ० २३० ।। ४. यतिमण्डल-मासुरागयष्टीः प्रतिमा अप्रतिमा जिनोत्तमानाम् ।
भुवनेषु विभूतये प्रवृत्ता वपुषा प्रांजलिरस्मि वन्दमानः ॥
देखिए, वही : श्लो० १२, पृ० २३१ । ५. जे अईश्रा सिद्धा जे अ भविस्संतिऽणागए काले।
सम्पइ अं वहमाणा सम्वे तिविहंण वन्दामि ।। एयाए मावत्थं, सुगमं सम्मं मणम्मि भावेतो । मण-वयण-कायसारं, करेञ्ज पंचंगपणिवायं ॥ श्रीमच्छान्तिसूरि, चेइयवंदणमहामासं : गाथा २६३, पृष्ट ६५ ।