Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 150
________________ १२८ जैन-मक्तिकान्यकी पृष्ठभूमि चरणद्वयके दर्शन कर लेनेसे भव्य जीव दुर्गतिको प्राप्त नहीं होते तथा जो पावापुरमै इन्द्र-द्वारा सम्पूजित हैं, वे भगवान् जिनेन्द्र, शासनकी सदैव रक्षा करें।" गिरिनारपर विराजमान नेमिनाथको नग्न मूतिके दर्शनोंसे संसारी जनकी चित्त. भ्रान्ति और अज्ञान दूर हो जाते हैं। अतिशय क्षेत्रोंको वन्दना करते हुए उन्होंने लिखा कि-नागह्रदतीर्थक पार्श्वजिनके दर्शन करने मात्रसे कोढ़ आदि असाध्य रोग भी दूर हो जाते हैं। पश्चिमी समुद्रतटपर अवस्थित श्री चन्द्रप्रभके अभिषेक-जलसे शरीर सुन्दर और सुवर्णमय हो जाता है। पांच सौ धनुष ऊंची आदिनाथको प्रतिमाको छायासे लवण-समुद्रका खारा जल मीठा हो जाता है। १. तिर्यञ्चोऽपि नमन्ति यं निज-गिरा गायन्ति भक्त्याशया दृष्टे यस्य पदद्वय शुभहशो गच्छन्ति नो दुर्गतिम् । देवेन्द्रार्चित-पाद-पंकज-युगः पावापुरे पापहा श्रीमद्वीरजिनः स रक्षतु सदा दिग्वाससां शासनम् ॥ मदनकीति, शासनचतुस्त्रिशिका : श्लोक १९ । २. सौराष्ट्र यदुवंश-भूषण-मणेः श्रीनेमिनाथस्य या मूर्तिर्मुक्तिपथोपदेशन-परा शान्ताऽऽयुधाऽपोहनात् । वस्त्रैरामरणैर्विना गिरिवरे देवेन्द्र-संस्थापिता चित्तभ्रान्तिमपाकरोतु जगतो दिग्वाससां शासनम् ॥ मदनकीर्ति, शासनचतुस्चिशिका : श्लोक २०, पृष्ठ १४ । ३. स्रष्टेति द्विजनायकह रिरिति यः प्रोदगीयते वैष्णचै बौद्धर्बुद्ध इति प्रमोदविवशैः शूलीति माहेश्वरैः । कुष्टानिष्ट-विनाशनो जनदृशां योऽलक्ष्यमूर्तिर्विभुः स श्रीनागहृदेश्वरो जिनपतिदिग्वाससां शासनम् ॥ देखिए वही : श्लोक १३, पृष्ठ ९-१० । ४. यस्य स्नानपयोऽनुलिप्तमखिलं कुष्ठं दनीध्वस्यते सौवर्णस्तव केशनिर्मितमिव क्षेमङ्करं विग्रहम् । शश्वद्भक्तिविधायिनां शुभतमं चन्द्रप्रमः स प्रभुः तीरे पश्चिमसागरस्य जयताहिग्वाससां शासनम् ॥ देखिए वही : श्लोक १६, पृ० १२। ५. क्षाराम्भोधिपयः सुधाद्रव इव प्रत्यक्षमास्वायते ...............रसकृत् यच्छायया संभरत् । पूतः पूततमः स पञ्चशत-कोदण्ड-प्रमाणः प्रभुः श्रीमानादिजिनेश्वरो स्थिरयते दिग्वाससां शासनम् ॥ देखिए वही : श्लोक १८, पृ० १३ ।

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