Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 148
________________ जैन-भक्तिकाब्यकी पृष्ठभूमि कृत्योंके कारण पूज्य बने हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बरके भेदसे भी तीर्थक्षेत्रोंके दो भेद हैं । कुछ तीर्थस्थान ऐसे हैं, जिन्हें केवल दिगम्बर, और कुछ ऐसे हैं, जिन्हें केवल श्वेताम्बर पूजते हैं । कुछ तीर्थ-स्थल ऐसे भी हैं, जिनकी दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों हो पूजा-अर्चा करते हैं। शायद इनका अस्तित्व तबसे है, जब जैन-शासन अविभक्त था । तीर्थक्षेत्र-स्तुति ___ आचार्य कुन्दकुन्दने प्राकृत निर्वाणभक्तिमें लिखा है, "अष्टापद ( कैलाश ) से वृषभनाथ, चंपापुरसे वासुपूज्य, ऊर्जयन्त ( गिरिनार पर्वत ) से नेमिनाथ, पावापुरसे महावीर और अवशिष्ट २० तीर्थंकर सम्मेदशिखरसे मोक्ष गये, उन सभीको हमारा नमस्कार हो।" उन्होंने १९ गाथाओं में विविध तीर्थक्षेत्रोंकी वन्दना की है। आचार्य पूज्यपादने भो संस्कृत निर्वाणभक्तिके १२ पद्योंमें, तीर्थकर, गणधर, श्रुतधर और अन्य वीतरागी महापुरुषोंको निर्वाणभूमियोंको भक्ति १. पोदनपुरके बाहुबली, श्रीपुरके पार्श्वनाथ, हुलगिरिक शङ्खजिन, धाराके पार्श्वनाथ, नागहदके नागहृदेश्वरजिन, सम्मेदशिखरकी अमृतवापिका, मङ्गलपुरके श्री अभिनन्दनजिन अधिक प्रसिद्ध हैं। देखिए. श्री मदनकीर्ति, शासनचतुस्विंशिका : सरसावा, वि० सं० २००६ । गजपन्था, मुंगीगिरि, पावागिरि, द्रोणगिरि, मेदगिरि,कुंथुगिरि, सिद्धवरकूट और बड़वानी श्रादिको केवल दिगम्बर और आबूगिरि तथा शंखेश्वर आदिको केवल श्वेताम्बर मानते हैं। अष्टापद, चम्पापुर, गिरनार, शत्रुजय और सम्मेदशिखर तथा पावापुरकी दोनों ही सममावसे वन्दना करते हैं। देखिए, पं० नाथूराम प्रेमी, हमारे तीर्थ क्षेत्र : जैन साहित्य और इतिहास : बम्बई, अक्टूबर १९५६, पृ० ४२४ । ३. अट्ठावयम्मि उसहो चंपाए वासुपुजजिणणाहो। उजते णेमिजिणो पावाए णिवुदो महावीरो॥ वीसं तु जिणवरिंदा अमरासुरवंदिदा धुदकिलेसा । सम्मेदे गिरिसिहरे णिग्वाणगया णमो तेसिं ॥ आचार्य कुन्दकुन्द, प्राकृत निर्वाणमति: दशमक्ति गाथा १,२, पृ. २३७ ।

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