Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 158
________________ जैन-भक्तिकान्यकी शम्भूमि प्रत्येक तीर्थकरके समवशरणकी रचनामें, चैत्यक्षोंका मुख्य स्थान होता है। भगवज्जिनसेनाचार्यने अपने महापुराणमें भगवान् ऋषभदेवके समवशरणके चत्यवृक्षोंकी छटाका सुन्दर चित्र खींचा है।' उनसे भी पूर्व हुए श्रीयतिवृषभको तिलोयपण्णत्तिमें चैत्य-वृक्षोंकी दिव्य शक्तिको स्वीकार किया गया है, यहाँतक कि उनको जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशका निमित्त कारण मान लिया है। चैत्य और सदन द्राविड़ोंके गांवके पुरुषको चिता, श्मशान-भूमिमें पहुंचनेके पूर्व एक झोंपड़ीमें रखी जाती थी। आगे चलकर इसी रिवाजके अनुसार समाधियोंपर झोपड़ो. नुमा इमारत बनने लगी। चितासे सम्बन्धित होनेके कारण इसे भी चैत्य ही कहा गया। रामायणमें चैत्यशब्द चैत्य-सदनके अर्थमें ही प्रयुक्त हुआ है। रावणने अशोक-वाटिकामें चैत्य-सदनका निर्माण करवाया था। महात्मा बुद्धने अनेकों बार अपने वार्तालापोंमें वैशालीके चैत्योंका उद्धरण दिया है। दीक्षा लेनेके उपरान्त भगवान् महावीर भी द्विपालसा नामके चैत्यमें ठहरे थे। इसी चैत्यमें महावीरके पिता राजा सिद्धार्थ, जो पार्श्वनाथके अनुयायी थे, प्रायः दर्शनार्थ जाया करते थे। प्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्रने भी अभिधानचिन्तामणिमें चैत्यशब्द 'चैत्य-सदन' के अर्थमें ही स्वीकार किया है। १. भगववज्जिनसेनाचार्य, महापुराण : प्रथम भाग, २२११८६-१९४ । २. श्री यतिवृषम, तिलोयपण्णत्ति : प्रथम माग, ३१३६-३७ । ३. N. Venkata Ramanayya, An Essay on the origin of the South Indian Temple, Methodist publishing house, Madras, 1930, page 75. ४. जबलपुरके निकट एक लघुतम पहाड़ीपर जैन-चैत्यालय है, जिसे लोग 'मढ़ियाजी' कहते हैं। ५. महर्षि वाल्मीकि, रामायण : निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, ५।१५। ६. Rhys Davids, The dialogues of Buddha, vol Il, p. 80. 9. Dr. Hermann Jacobi, Studies in Jainism, Partone, Jina Vijaya Muni Edited, Jaina Sahitya Samsodhaka Karyalya, Ahmedabad, 1946, p. 5, F. N. 8. ८. प्राचार्य हेमचन्द्र, भमिधानचिन्तामणि : ४था सर्ग, ६०वाँ श्लोक ।

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