Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 137
________________ जैन-भक्तिके भेद धर्मसूरिने' भी ऐसे ही भावोंको प्रकट किया है । ८. शान्ति - भक्ति शान्तिका तात्पर्यार्थ शान्तिका अर्थ है निराकुलता । आकुलता रागसे उत्पन्न होती है । रत होना राग है । इसीको आसक्ति कहते हैं । आसक्ति ही अशान्तिका मूल कारण है । सांसारिक द्रव्योंका अर्जन और उपभोग बुरा नहीं, किन्तु उनमें आसक्त होना ही दुःखदायी है | आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है कि जैसे अरतिभाव से पी गयी मदिरा नशा उत्पन्न नहीं करती, वैसे ही अनासक्त भावसे द्रव्योंका उपभोग; कर्मोका बन्ध नहीं करता । कर्मोंका बन्ध अशान्ति ही है । ર ११५ शान्ति दो प्रकारकी होती है-क्षणिक और शाश्वत । पहली सांसारिक रोगादिके उपशमसे और दूसरी अष्ट कर्मोंके विनाशसे उत्पन्न होती है । मोक्ष प्राप्त करना ही शाश्वत शान्ति है । शान्ति-भक्तिकी परिभाषा शान्तिके लिए की गयी भक्ति शान्ति भक्ति कहलाती है । भगवान् जिनेन्द्रकी भक्ति से क्षणिक और शाश्वत दोनों ही प्रकारकी शान्ति मिलती है । जिनेन्द्रने शाश्वत शान्ति प्राप्त कर ली है । वे शान्तिके प्रतीक माने जाते हैं । वैसे तो २४ तीर्थङ्कर शान्ति प्रदान करते हैं, ङ्कर शान्तिनाथको विशिष्ट रूपसे शान्ति प्रदायक किन्तु उनमें भी १६ वें तीर्थमाना जाता है । शान्तिनाथको लक्ष्य कर जितने भी स्तुति स्तोत्र बने हैं, सभी में शान्तिको बात है । आचार्य १. ये मूर्ति तत्र पश्यतः शुभमयीं ते लोचने लोचने, या ते वक्त गुणावलीं निरुपमां सा भारती भारती । या ते न्यञ्चति पादयोर्वरदयोः सा कन्धरा कन्धरा, यत्ते ध्यायति नाथ ! वृत्तमनघं तन्मानस मानसम् ॥ श्रीधर्मसूरि, श्रीपाइर्वजिनस्तवनम् : तीसरा श्लोक, जैनस्तो सन्दोह, भाग १, अहमदाबाद, पृ० २०३ । २. जह मज्जं पिवमाणो अरदिमावेण मज्जदि ण पुरिसो । rogaभोगे भरदो णाणी वि ण वज्झदि तहेव ॥ आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार : गाथा ५९६ ।

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