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जैन मक्तिकान्यकी पृष्ठभूमि
अतः सविकल्पक समाधि सालम्ब और निर्विकल्पक निरवलम्ब होती है । सविकल्पक समाधि में ज्ञानी जन, विषयकषायादिके खोटे ध्यानसे चित्तको हटाने और मोक्ष मार्ग में लगाने के लिए यह भावना भाते हैं, "चतुर्गतिके दुःखोंका क्षय हो, अष्टकमका नाश हो, ज्ञानका लाभ हो, पञ्चम गतिमें गमन हो, समाधिमरण हो और जिनराजके गुणोंकी सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो ।"
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निर्विकल्पक समाधि वह है, जिसमें समस्त विकल्प विलीन हो जाते हैं । इसमें अशुभके साथ-साथ शुभका भी त्याग करना होता है। आचार्य योगीन्दुका कथन हैं कि जबतक शुभाशुभ परिणाम दूर नहीं होंगे, शुद्धोपयोगरूप परमसमाधि प्रकट नहीं हो सकती । आचार्य कुन्दकुन्दने भी लिखा है, "जो रागादिक अन्तरङ्ग परिग्रह करि सहित हैं और जिन-भावनारहित द्रव्यलिंगको धारकर निर्ग्रन्थ बनते हैं, वे इस निर्मल जिन शासन में समाधि और बोधि नहीं पाते । समाधि-भक्तिकी परिभाषा
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समाधि धारण कर मोक्ष पानेवालोंसे, समाधिमरणकी याचना करना समाधि भक्ति कही जाती है । समाधिपूर्वक प्राणोंका विसर्जन करना समाधि मरण है । आचार्य समन्तभद्रने कहा है कि तपका फल अन्त क्रिया के आधारपर अवलम्बित है, अतः यथा सामर्थ्य समाधिमरणमें प्रयत्नशील होना चाहिए । अन्त समयमें
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स्मक निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दसमरसीमावसुखरसास्वादरूपमिति ज्ञातव्यम् ।
देखिए वही : पहले दोहेकी ब्रह्मदेवकृत संस्कृत व्याख्या : पृष्ठ ६ । १. अत्र यद्यपि सविकल्पावस्थायां विषयकषायाद्यपध्यानवचनार्थं मोक्षमार्गे भावनाढीकरणार्थं च "दुक्खक्खश्रो कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ती होउ मजनं" इत्यादि भावना कर्त्तव्या तथापि atara निर्विकल्प परमसमाधिकाले न कर्त्तव्येति भावार्थ: ।
देखिए वही : १८८वें दोहेकी ब्रह्मदेवकृत संस्कृत व्याख्या : पृ० ३२८ । २. जामु सुहासुह- भावडा णवि सयल वि तुर्हति ।
परम-समाहि ण तामु मणि केवुलि एमु मणंति ॥
देखिए वही : २।१९४, पृ० ३३२ ।
३. आचार्य कुन्दकुन्द, अष्टपाहुड : मारौठ, भावपाहुड : गाथा ७२ ।
४. अन्तक्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते ।
तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ॥
आचार्य समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र : वीरसेवामन्दिर, सरसावा, १९५५, ६/२, पृष्ट १६३ ।