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जैन-मक्तिके भेद मनको पञ्चपरमेष्ठी, णमोकारमन्त्र और शुद्ध आत्मामें केन्द्रित करना आसान नहीं है । यह तभी हो सकता है जब समाधिष्ठोंकी कृपा उपलब्ध हो। वह कृपा दो उपायोंसे मिलती है-एक तो स्तुति-स्तोत्रोंके द्वारा और दूसरे समाधि-स्थलोंके प्रति आदर-सम्मान दिखानेसे । यह ही समाधि-भक्ति है। समाधिमरणकी याचना
आचार्य कुन्दकुन्दने अपनी प्राकृत-भक्तियोंके अन्तमें, 'दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ति होउ मज्झं के द्वारा समाधिमरणकी याचना की है।' उन्होंने अनगारोंसे तो अपने पूरे संघके लिए ही समाधिका वरदान मांगा है। ___ आचार्य पूज्यपादने भगवान् जिनेन्द्रदेवसे प्रार्थना की है, "हे जिनेन्द्रदेव ! बचपनसे आज तक, मेरा समय आपके चरणोंकी सेवा और विनयमें ही व्यतीत हुआ है। उसके उपलक्ष्यमें यह ही वर चाहता हूँ कि आज, जब कि हमारे प्राणोंके प्रयाणका क्षण उपस्थित हुआ है, मेरा कण्ठ आपके नामकी स्तुतिके उच्चारणमें अकुण्ठित न हो।" आचार्यका निवेदन है, "हे जिनेन्द्र ! जबतक मैं निर्वाण प्राप्त करूं, तबतक आपके चरण-युगल मेरे हृदयमें, और मेरा हृदय आपके दोनों चरणोंमें लोन बना रहे ।"
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१. देखिए, दशमक्ति : शोलापुर, सन् १९२१ ई०, आचार्य कुन्दकुन्द, प्राकृत
भक्तियाँ, अन्त भाग । २. एवं मयेमिस्थुया अणयारा रायदोसपरिसुद्धा।
संघस्स वरसमाहिं मज्झवि दुक्खक्वयं दितु ॥
वही : प्राकृत योगिभक्ति : गाथा २३, पृ० १८९ । ३. आबाल्याज्जिनदेवदेव भवतः श्रीपादयोः सेवया,
सेवासविनेयकल्पलतया कालोऽद्य यावद्गतः । स्वां तस्याः फलमर्थये तदधुना प्राणप्रयाणक्षणे, स्वकामप्रतिबद्धवर्णपठने कण्ठोऽस्त्वकुण्ठो मम ॥ दशमनयादिसंग्रह : प्राचार्य पूज्यपाद, संस्कृत समाधिमकि, इटा श्लोक, पृष्ठ १८५। तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पदद्वये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद्यावनिर्वाणसंप्राप्तिः ॥ देखिए वही : ७वाँ श्लोक, पृष्ठ १८५ ।
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