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जैन-मक्तिके भेद ..
१२३ सामने कमलह्रदमै और श्री हेमचन्द्राचार्य ( ११४५-१२२९ वि० सं० ) का शत्रुञ्जय पहाड़पर स्थित है। स्थूलभद्र के समाधि-स्थलको एक स्तूपके रूपमें, चीनी यात्री श्यूआनचुआंगने देखा था। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही इन स्थानोंकी भक्ति-भावसे यात्रा करते हैं ।
इन समाधि-स्थलोंकी स्तुतिका उल्लेख भी प्राचीन ग्रन्थों में पाया जाता है। प्रतिक्रमण-सूत्र में लिखा है, "इस जीव-लोकमें जितनी भी निषोधिकाएं हैं, उन्हें नमस्कार हो।" साधुओंके देवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमणमें 'निषिद्धिका दंडक' नामसे एक पाठ है, उसमें त्रिलोक-स्थित निषिद्धि काओंकी वंदना की गयी हैं।
१०. निर्वाण-भक्ति 'निर्वाण' शब्दकी व्युत्पत्ति
'निर्वाण' शब्द निःपूर्वक 'वो' धातुसे बना है, जिसका अर्थ है-बुझा देना। बौद्ध-शास्त्रों के अनुसार आत्माके बुझ जाने अर्थात् शान्त हो जानेको निर्वाण कहते हैं, जैसा कि बौद्ध पिटकोंमें 'शान्तं नित्राणं' वाक्य आया है। अश्वघोषने दीपककी भांति दुःख-क्लेशादिके क्षय होनेपर; आत्माका शान्त हो जाना ही निर्वाण माना है।
जैन-धर्म में आत्मा कभी बुझतो नहीं, किन्तु समूचे कर्मोके क्षय हो जानेसे
१. देखिर, मुनि कान्तिसागर, खोजकी पगडण्डियाँ : भारतीय ज्ञानपीठ काशी,
अक्टूबर १९५३, पृ० २४४ । २. देखिए वही : पृष्ठ २४४ ।। ३. "जाओ अण्णाओ कानो वि णिसीहियाओ जीवलोयम्मि..."
देखिए, प्रतिक्रमणपीठिकादण्डक' : धर्मध्यानदीपक : मांगीलाल हुकुमचन्द
पांड्या सम्पादित, कलकत्ता, पृष्ठ १८४-१८५। ४. प्रतिक्रमणसूत्र, मूलसूत्रके द्वितीय भागमें वर्णित है ( डॉविण्टरनिरस,
इण्डियन हिस्ट्री II, पृष्ठ ४७४ ) । देवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमणका निषिद्धिका दण्डक', देखिए, दशभक्त्यादिसंग्रह : पृ० २७४-२८५ । दीपो यथा निवृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चित् विदिशं न काञ्चित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ जीवस्तथा-निवृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चित् विदिशं न काञ्चित् क्लेशक्षयास्केवलमेति शान्तिम् ॥ अश्वघोष : सौन्दरनन्द, १६।२८, २९ ।