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जैन-मक्तिके भेद
दर्शन-मात्र
भूपाल कविने 'जिनचतुर्विशतिका' में लिखा है, "हे भगवन् ! जिन्होंने आपके दर्शन किये हैं, उन्हींके नेत्र सफल हैं, और वे ही नेत्रवान् कहलाते हैं !' भगवानको निरन्तर देखनेपर भी, इन्द्र जब अतृप्त रहा, तब उसने सहस्र-नेत्र कर लिये। पाप-विनाशक
वादिराजसूरि ( ११वीं शताब्दी विक्रम ) ने एकोभावस्तोत्रमें कहा है, "हे भगवन् ! आपके चरण-कमलोंकी संगतिको प्राप्त हुई भक्ति-गंगामें जो स्नान कर लेता है, उसके चित्तके समूचे पाप धुल जाते हैं।'' अन्यसे महत्ता
भक्तामरस्तोत्रमें लिखा है, "हे विभो ! निर्मल ज्ञान जैसा आपमें शोभा देता है, वैसा ब्रह्मा, विष्णु, महादेवमें नहीं । महामणिमें जो चमक होती है, वह कांच
१. चक्षुष्मानहमेव देव भुवने नेत्रामृतस्यन्दिनं
त्वद्वक्वेन्दुमतिप्रसादसुभगैस्तेजोभिरुद्रासितम् । येनालोकयता मयाऽनतिचिराञ्चक्षुः कृतार्थीकृतं
द्रष्टव्यावधिवीक्षणव्यतिकरच्याजम्भमाणोत्सवम् ॥ श्रीभूपालकवि, जिनचतुर्विशतिका : पंचस्तोत्र संग्रह : दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत, वी. नि० सं० २४६६, ११वाँ श्लोक, पृ० १३० । २. तव रूपस्य सौन्दयं दृष्ट्वा तृप्तिमनापिवान् । द्वयक्षः शक्रः सहस्राक्षो बभूव बहु-विस्मयः ॥ आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र : वीरसेवामन्दिर, सरसावा, १९५१, १८१४, पृ. ६२ । ३. प्रत्युत्पन्ना नयहिमगिरेरायता चामृताब्धे
र्या देव ! त्वत्पदकमलयोः संगता भफिगङ्गा । चेतस्तस्यां मम रुचिवशादाप्लुतं क्षालितांहः
कल्माषं यद्भवति किमियं देव संदेहभूमिः ॥ वादिराजसूरि, एकीमावस्तोत्र, पंचस्तोत्रसंग्रह : सूरत, बी. नि. सं० २४६६, १६वाँ श्लोक, पृ० ८०। १५