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जैन - भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि
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देखते हैं, और जिन्हें जन्म-जरा-मृत्युरूप दोष स्पर्श भी नहीं कर पाता ।
दास्य भाव
तीर्थंकरको भक्ति में तत्पर होते हुए आचार्य सोमदेवने लिखा है, "हे भगवन् ! आपके प्रसादसे मुझे, मानवीय और दैवीय वैभव प्राप्त हुए हैं । अब मेरा हृदय आपकी सेवाके लिए उत्सुक है, उसे इसका अवसर देकर सनाथ बनाइए ।' 192
नाम - कीर्तन
आचार्य सिद्धसेनने कल्याणमन्दिरस्तोत्र में कहा है, "हे देव ! आपके स्तवन की तो अचिन्त्य महिमा है ही, किन्तु आपका नाम लेने मात्रसे ही यह जीव संसारके दुखोंसे बच जाता है । जैसे घामसे प्रपीड़ित मनुष्यको कमल-युक्त सरोवर ही नहीं, अपितु उसकी शीतल हवा भी सुख पहुँचाती है ।
१. त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोकमालोकितं साक्षाद्येन यथा स्वयं करतले रेखात्रयं सांगुलि । रागद्वेष मयामयान्तकजरालोल व लोभादयो
नालं यत्पदलङ्कनाय स महादेवो मया वन्द्यते ॥
आचार्य अलंकदेव, अकलंक स्तोत्र हिन्दी टीका सहित, मुंशी नाथूराम प्रकाशित, कटनी- मुड़वारा ( जबलपुर ), वि० सं० १९६३, पहला श्लोक, पृ० १ ।
२. मनुजदिविजलक्ष्मीलोचनालोकलीला
श्चिरमिहचरितार्थास्त्वत्प्रसादात् प्रजाताः ।
हृदयमिदमिदानीं स्वामिसेवोत्सुकत्वात्
सह सविसनाथं छात्रमित्रे विधेहि ||
K. K. Handiqui, Yasastilaka and Indian Culture, Jaina Samskriti Samrakshaka Sangha, Sholapur, 1949, p. 313. ३. प्रास्तामचिन्त्य महिमा जिनसंस्तवस्ते
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपोहतपान्यजनानिदाघे
प्रीणाति पद्मसरसः सरसोऽनिलोऽपि ॥
आचार्य सिद्धसेन, कल्याणमन्दिर स्तोत्र : काव्यमाला, सप्तम गुरूलक, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, ७वाँ श्लोक, पृ० ११ ।