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जैन - भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि
अनेकों स्तुति स्तोत्र ऐसे हैं, जिनका सम्बन्ध सीमन्धर स्वामीकी भक्तिसे है । तीर्थकर भक्ति
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आचार्य कुन्दकुन्दने भावपाहुडमें लिखा है कि सोलह कारणभावनाओंका ध्यान करने से अल्पकालमें ही तीर्थंकर नाम-कर्मका बन्ध होता है । उन भावनाओमें एक 'अर्हद्भक्ति' भी है। इसका तात्पर्य है कि अर्हन्त ( तीर्थकर ) की भक्ति करनेवाला तीर्थंकर बन जाता है । आचार्य उमास्वातिने भी तीर्थंकरत्व नाम - कर्मके कारणोंमें अर्हद्भक्तिको भी गिना है। तीर्थंकर जैन-भक्ति के प्रमुख विषय थे और हैं । उनके अभाव में उनकी मूर्तियां पूजी जाती हैं ।
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लघुता
भगवान्को महत्ता और अपनी लघुता दिखाना भक्तका मुख्य गुण है । आचार्य समन्तभद्र ( दूसरी शताब्दी विक्रम ) ने स्वयम्भू स्तोत्र में लिखा है, "हे भगवन् ! 'आप ऐसे हैं, वैसे हैं', ऐसा मुझ अल्पमतिका यह स्तुतिरूप प्रलाप है । यह आपके अशेष- माहात्म्यको न जानते हुए भी, आपके गुणोंका संस्पर्श करने मात्र से ही, अमृत समुद्रके स्पर्शको भांति कल्याणकारक है ।"" श्रीमान
१. मेरुनन्दनोपाध्याय ( वि० सं० १३७५ - १४३० ) का सीमन्धरस्वामिस्तवन ( अप० ) और विनयप्रमसूरि ( वि० सं० १३९४ - १४१२ ) का सीमन्धरस्वामिस्तवन बहुत प्रसिद्ध हैं। दोनों ही क्रमश: जैनस्तोत्रसंदोह प्रथम भाग ( पृ० ३४० ) में और एन्शियष्ट जैन हिम्स ( पृ०१२० ) में छप चुके हैं।
२. विसय त्रिरत्तो समणो छद्द सवर कारणाइ भाऊण । तित्थयरणामकम्मं बंधइ असरेण कालेन ॥
आचार्य कुन्दकुन्द, अष्टपाहुड श्रीपाटनी दि० जैन ग्रन्थमाला, मारोठ, मारवाड़, भावपाहुड : ७९वीं गाथा ।
३. दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग-संवेगौ शक्तिस्यागतपसी साधुसमाधि-वैयावृत्यकरणमा मदाचार्य बहुश्रुत प्रवचनaftaar कारिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचन वत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य । उमास्वाति, तत्त्वार्थ सूत्र : मथुरा, ६।२४, पृ० १५३ | ४. त्वमीशस्तादृश इत्ययं मम प्रलाप-लेशोऽल्प-मतेर्महामुने ! अशेष-माहात्म्यमनीरयन्नपि शिवाय संस्पर्श इवाऽमृताम्बुधेः ॥ आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र : १४/५, पृ० ५० ।