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जैन-भक्तिके भेद
तुंगाचार्य ने भी कहा है, “हे भगवन् ! मैं अल्पश्रुत हूँ और विद्वानोंका परिहासधाम हूँ, फिर भी आपकी भक्ति के कारण ही आपकी स्तुति करने में प्रवृत्त हुआ हूँ। यह वैसा ही है जैसे वसन्त ऋतु में कोकिल, आम्रकलिकाके कारण ही मधुर शब्दका उच्चारण करती है ।'
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शरण
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आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने तीर्थंकर पार्श्वनाथको 'निःसंख्यसारशरणं शरणं शरण्यं' कहा है । भगवान् उन दोनोंके आश्रय हैं, जिनका कोई भाई-बन्धु नहीं । श्रीअमितगति भी उस आप्तदेवकी शरण में गये हैं, जिसके दर्शन होनेपर समूचा विश्व स्पष्ट दिखायी दे उठता है ।
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गुण-कीर्तन
भक्तको आराध्य में अनन्त गुण दिखायी देते हैं । वह उनको पूरा कह भो नहीं पाता, फिर अतिशयोक्तिपूर्ण स्तुति कैसे की जा सकती है । ४ श्री अकलंकदेव ने उन महादेवकी वन्दना की है, जो पूरे संसारको हाथकी रेखाओंकी भाँति
१. अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति तच्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतु ॥ श्रीमानतुङ्गाचार्य, भक्तामर स्तोत्र : काव्यमाला, ६ठा श्लोक, पृष्ठ ३ | २. निः संख्य सारशरणं शरणं शरण्यमासाद्य सादितरिपुप्रथितावदानम् । स्वत्पादपङ्कजमपि प्रणिधान वन्ध्यो वन्ध्योऽस्मि चेद्भुवनपावन हा हतोऽस्मि ॥ आचार्य सिद्धसेन, कल्याणमन्दिरस्तोत्र : काव्यमाला बम्बई, ५९२६, ४०वाँ श्लोक, पृ० १७ ।
३. विलोक्यमाने सति यत्र विश्वं त्रिलोक्यते स्पष्टमिदं विविकम् । शुद्धं शिवं शान्तमनाद्यनन्तं तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥ श्रीअमितगतिसूरि, सामायिक पाठ : ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद सम्पादित, धर्मपुरा, देहली, वि० सं० १९७७, २०वाँ पद्य, पृ० १८ ।
४. गुण- स्तोकं सदुल्लंघ्य तद्बहुत्व- कथा स्तुतिः । आनन्त्यासे गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ॥
आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र : वीरसेवा मन्दिर, सरसावा, १८११, पृ० ६१ ।