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जैन-मक्तिके भेद
१०९ पर उन्हें ऐतिहासिक पुरुष मान लिया गया है। हो सकता है कि होनेवालो खोजोंमें, अवशिष्ट तीर्थंकरोंकी ऐतिहासिकता भी प्रमाणित हो जाये ।
भविष्यमें होनेवाले २४ तीर्थंकरोंका नाम, मां-बापका परिचय और जन्मस्थान, प्राचीन आगम-ग्रन्थोंमें दिया हुआ है। समवायांग सूत्रमें लिखा है कि मगध सम्राट् श्रेणिक ( बिम्बसार ) पहले नरकसे निकलकर प्रथम तीर्थकर होंगे। महावीरकी परमभक्त सुलसा नामकी स्त्री सोलहवें तीर्थंकर और कृष्ण इक्कीसवें तीर्थंकरका पद प्राप्त करेंगे। होनेवाले तीर्थंकरोंकी भक्तिमें, अनेक स्तुति-स्तोत्रोंका निर्माण हआ है।
भरतक्षेत्रके अतिरिक्त अन्य महाविदेहोंमें भी चौबीस तीर्थकर जन्म लेते हैं। पूर्व महाविदेहमें, अभो ‘सीमन्धर स्वामी' नामके तीर्थंकर मौजूद हैं । आचार्य कुन्दकुन्द उन्होंके पास अपनी शंका-समाधान करने गये थे। भरतक्षेत्रमें होनेवाली चौबीसोके सातवें तीर्थकर तक उनका समय चलेगा। जैन-साहित्यमें
Cambridge History of India, Vol I. E. J. Rapson Edited, S. Chand and Co, Delhi, 1955, p. 137.
or Dr. lagdish Chandra, Life in Ancient India, as depicted in the Jain Canons, Bombay, 1947, p. 19. १. आचाराङ्ग सूत्र : ( Il. 3, 401 p. 389 ) में लिखा है कि महावीरके
माता-पिता और शायद सब ज्ञातृक्षत्रिय, पार्श्वनाथकं अनुयायी थे। कल्पसूत्र ( 115 F. ) में लिखा है कि श्रमण होनेके बाद महावीर जिस चैत्यमें ठहरे, वह पार्श्वचैत्य था। Dr. Hermann Jacobi, Studies in Jainism, Ahmedabad,
p. 5, n. 8. २. Samav, Sutra 159, St 77 Ft, Ancient Jaina Hymns,
Charlottee Krause Edited, Scindia Oriental Institute,
Ujjain, 1952, Introduction, p. 15-16. ३. जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिवणाणेण ।
ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥ श्रीदेवसेनाचार्य, दर्शनसार : (माघ सुदो दशमी, वि० सं० ९९०), पं.
नाथूराम प्रेमी सम्पादित, बम्बई, १९२०, ४३वीं गाथा ।। ४. रत्नसमुच्चय ग्रन्थ : सेठ माणिकचन्द पीताम्बरदास प्रकाशित, हुबली,
वि० सं० १९८५, ५१७वाँ पद्य, पृ० २०२ ।