________________
८०
१
करता हूँ ।
""
जैन - भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि
द्वादशात्मा होनेके कारण भगवान् जिनेन्द्र भी श्रुतधर कहलाते हैं । पण्डित आशाधरने उन्हें 'गुरुश्रुति' और 'श्रुत-पूत' जैसे विशेषणोंसे सुशोभित किया है । इसका अर्थ है कि भगवान्को दिव्यध्वनि ही वह श्रुत है, जिसके द्वारा भव्य प्राणी मोक्ष जानेमें समर्थ हैं। आचार्य कुन्दकुन्दने भी भगवान् जिनेन्द्रको ही श्रुतधेर माना है। उन्होंने लिखा है, "इस प्रकार मेरे द्वारा संस्तुत किये गये श्रुतप्रवर जिनवरवृषभ, मुझे शीघ्र ही श्रुत लाभ प्रदान करें।""
शास्त्र पूजन
श्रुतके दो भेद हैं- द्रव्यश्रुत और भावश्रुत। शास्त्रोंकी गणना द्रव्यश्रुतमें की जाती है। जैनाचार्योंने शास्त्र पूजनको अचित्तद्रव्य पूजनको कोटिमें गिना हैं। आचार्य भूतबलिने जब षट्खण्डागमकी रचना समाप्त की, तब उसे शास्त्ररूपमें प्रतिष्ठित किया गया, और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमोके दिन, चतुविध संघके साथ उसका महान् पूजन भी हुआ । भगवान् जिनेन्द्रकी मूर्तिके समान ही,
५
५.
१. श्रुतस्कन्धनमश्चन्द्रं संयमश्रीविशेषकम् ।
इन्द्रभूतिं नमस्यामि योगीन्द्रं ध्यानसिद्धये ॥
आचार्य शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव : रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला-२, श्री परमश्रुतप्रभावक मंडल, बम्बई, छठा श्लोक ।
'गुर्वी केवलज्ञानसमाना श्रुतिः शास्त्रं यस्येति', 'श्रुतिशब्देन सर्वज्ञवीतरागध्वनिः, तया पूतः पवित्रः सर्वोऽपि पूर्व सर्वज्ञश्रुत्या तीर्थंकरनामगोत्रं बद्ध्वा पवित्रो भूत्वा सर्वज्ञः संजातस्तेन श्रुतिपूत उच्यते ।'
पं० आशावर, जिनसह स्वनाम: पं० हीरालाल जैन सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, फरवरी १९५४, ९।१२२, ९।१२१, स्वोपज्ञवृति, पृ० १२९, १२७ । एवम सुदपरा भत्तीरायेण संधुया तथा ।
सिग्धं मे सुदलाई जिणवरवसहा पयच्छंतु ॥
दशभक्ति : शोलापुर, १९२५ ई०, आचार्य कुन्दकुन्द, प्राकृतश्रुतभक्ति : ११वीं गाथा, पृ० १२४ ।
४. 'तेसिं च सरीराणं दध्वसुदस्स वि अचित्तपूजा सा ।'
आचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दिश्रावकाचार : पं० हीरालाल जैन सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, अप्रैल १९५२, ४५०वीं गाथा, पृ० १३० । इन्द्रनन्दि, श्रुतावतार : माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, १४३ वाँ पद्य