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-मक्तिके भेद
भावसे आचार्योंकी तोव्र भक्ति करनेको बात कही है। श्री सोमदेवसूनि अष्ट द्रव्योंसे आचार्यकी पूजा करनेका निर्देश किया है । एक स्थानपर उन्होंने लिखा है, "तत्त्व ज्ञानके प्रकाशसे जिन्होंने, कर्मोके बन्धरूपी अन्धकारको दूर भगा दिया है, ऐसे आचार्यके चरण-युगलको मैं चन्दनसे पूजा करता हूँ ।'
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आचार्यों का स्मरण
आचार्योंका स्मरण, जिनेन्द्रके स्मरणकी भांति ही मंगल देनेवाला होता है । अनेक आचार्योंने अपने से पूर्व हुए आचार्योंका स्मरण, केवल इसलिए किया है, जिससे उनके शास्त्र, निर्विघ्न रूपसे समाप्त हो सकें । आचार्य जिनसेनने अपने महापुराण के प्रारम्भ में ही समन्तभद्र, सिद्धसेन, भट्टाकलंक, पात्रकेशरी, प्रभाचन्द, शिवकोटि, जटासिंनन्दि और वीरसेन आदिकी वन्दना मंगल-प्राप्ति के लिए ही की है ।
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श्री सिद्धसेन ने पहलो द्वात्रिंशिकामें समन्तभद्रका, और श्रीजिनसेनाचार्यने हरिवंशपुराण में समन्तभद्र और सिद्धसेन दोनों का गौरवपूर्ण स्मरण किया है ।
१. अरहंतसिद्धचेदिय, पवयण आयरिय सब्वसाधूसु । तिव्वं करेदि मत्ती, णिन्विदिगिच्छेण भावेण ॥
शिवार्यकोटि, भगवती आराधना मुनि श्री अनन्तकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, अष्टम पुष्प, बम्बई, स्वर्गीय पण्डित सदासुखलालजी कृत भाषावचनिका सहित, वि. सं. १९८९, पृष्ठ ३०१ |
२. तत्वालोकावगमगलितध्वान्तबन्धस्थितीना
५.
मिष्टि तेषामहमुपनये पादयोश्चन्दनेन ।
K. K. Handiqui, Yasastilak and Indian Culture, JainaSamskriti Samrakshaka Sangha, Sholapur, 1949, P. 311. ३. भगवजिनसेनाचार्य, महापुराण: पहला भाग, पं० पन्नालाल सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि. सं २००७, १1४१–५९, पृ० १० । य एष षड्जीव-निकाय-विस्तरः परैरनालीढपथस्त्वयोदितः । अनेन सर्वज्ञ परीक्षण - क्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः ॥ आचार्य सिद्धसेन, द्वात्रिंशिका - स्तोत्र : अवचूरि सहित, श्री उदयसागरसूरि सम्पादित, गुजराती व्याख्यायुक्त, जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, १९०३ ईस्वी, पहली द्वात्रिंशिका : १३वाँ पद्य ।
४.
श्रीजिनसेन ( शक संवत् ७०५ ) हरिवंशपुराण, माणिकचन्द्र दि० जैन संस्कृत ग्रन्थमाला, बम्बई, द्वितीय मागका अन्त, गुर्वावली, २९-३० श्लोक |