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जैन-मकान्यकी पृष्ठभूमि
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प्रदान करता है ।" उपाध्याय विद्वान् होता है और चरित्रवान् भी । उपाध्याय वह ही हो सकता है, जो साधुके चरित्रको पूर्ण रूपसे पाल चुका हो । जहाँतक शिक्षा देनेका सम्बन्ध है, आचार्य और उपाध्याय दोनों समान हैं, किन्तु दीक्षा देना और संघपर अनुशासन करना, आचार्य ही का अधिकार है ।
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साधु वह है, जो चिरकालसे; जिनदीक्षा में प्रव्रजित हो चुका हो । उसे दृढ़तापूर्वक शील- व्रतोंका पालन करना चाहिए और रागसे रहित तथा विविध विनयोंसे युक्त होना ही चाहिए। यद्यपि उसका सम्बन्ध शिक्षा-दीक्षा देनेसे- नहीं होता, फिर भी रत्न त्रयके साधना पथपर वह आचार्य - उपाध्यायकी भाँति ही बढ़ता है ।
परमेष्ठी शब्द और उसकी व्याख्या
पं० आशा धरने 'परमेष्ठि' शब्दको व्युत्पत्ति 'जिन सहस्रनाम ' की स्वोपज्ञवृत्ति में लिखी है, "परमे उत्कृष्टे इन्द्र-धरणेन्द्र-नरेन्द्र-गणेन्द्रादिवन्दिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी ।" वह परमपद शुद्ध आत्मा ही है । आचार्य कुन्दकुन्दने मोक्ष पाहुडमें
१. अण्णाण घोरतिमिरे दुरंततीरह्मि हिडमाणाणं ।
भवियाणुज्जोययरा उवज्झया वरमदिं दंतु ॥
श्री यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ति : प्रथम भाग, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर प्रकाशन, १९४३ ई०, ४थी गाथा ।
२. जो श्यणतयजुत्तो णिचं धम्मोवएसणे णिरदो । अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स ॥
सो उवझा
नेमिचन्द्राचार्य, द्रव्यसंग्रह पं० भुवनेन्द्र सम्पादित, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, वी० नि० सं० २४६२, ५३वीं गाथा, पृ० ४० । ३. 'चिरप्रव्रजितः साधुः '
आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, ९।२४, पृ०४४२ । ४. थिरधरिय सीलमाला ववगयराया जसोहपडहत्था ।,
बहुविख्यभूसियंगा सुहाई साहू पयच्छंतु ॥
श्री यतिवृषभ, तिलोयपण्णसि : प्रथम भाग, शोलापुर, १९४३ ई०, ५वीं गाथा ।
५.
पं० आशाधर, जिनसहस्रनाम : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि. सं० २०१०, २।२३ की स्वोपज्ञवृत्ति, पृष्ट ६५ ।