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जैन-मक्तिके भेद
आचार्य उमास्वातिने आचार्य-भक्तिको, तीर्थकर नाम-कर्मके आसवका कारण माना है।' अर्थात् आचार्यको भक्ति करनेवाला तीर्थकरके पदको प्राप्त कर सकता है।
युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरिके स्मरणमें, स्थान-स्थानपर 'दादावाणियों को रचना हुई है। उनमें सूरिजीकी पादुकाएं और मूर्तियाँ स्थापित की गयो हैं । वे भक्तोंकी इच्छाओंको पूर्ण करनेके लिए साक्षात् कल्पतरुके समान हैं। .
इन महर्षियोंके गुण-स्तवनको पढ़ने और सुनने मात्र से ही सिद्धि-सुख प्राप्त होता है।
६-पंचपरमेष्ठि-भक्ति पंच-परमेष्ठी ___ अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और लोकके सर्व-साधु पंच-परमेष्ठी कहलाते हैं । यह क्रम, साधुसे अरहन्त तक, उत्तरोत्तर अधिकाधिक आत्म-शुद्धिकी दृष्टिसे किया गया है। सिद्धके अधिक पवित्र होनेपर भी, लोकोपकार करनेके कारण अरहन्तको प्रथम स्थान मिला है। दोनोंका भेद, सिद्ध-भक्ति में लिखा जा चुका है । आचार्यका स्वरूप भी आचार्य-भक्ति में कहा गया है।
उपाध्याय वह है, जिसके पास जाकर मोक्षके लिए शास्त्रोंका अध्ययन किया जाता है। वह अज्ञानरूपी अन्धकारमें भटकते हुए जीवोंको ज्ञानरूपी प्रकाश
१. उमास्वाति, तत्वार्थसूत्र : पं. कैलाशचन्द्र सम्पादित, मथुरा, पृ० १५३ । २. अगरचन्द नाहटा, युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि : पृष्ठ १०-११ । ३. जो पढइ गुणइ निसुणइ इणमो गुणसंथवं महरिसीणं ।।
सिरिधम्मघोसमणहं काउं सो लहइ सिद्धिसुहं ॥ श्रीधर्मघोषसूरि (वि. सं. १३०२-१३२९ ), ऋषिमंडलस्तव : संस्कृत टीका सहित, २०९वाँ पध, जैनस्तोत्र सन्दोह : प्रथम माग, मुनि चतुर.
विजय सम्पादित, अहमदाबाद, वि. सं० १९८९, पृष्ठ ३३९ । ४. 'मोक्षार्थ शास्त्रमुपेत्य तस्मादधीयत इत्युपाध्यायः।'
प्राचार्य पूज्यापाद, सर्वार्थसिद्धि : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि. सं. २०१२, ९।२४ का माष्य, पृष्ठ ४४२ ।
और 'मोक्षार्थमुपेत्याधीयते शास्त्रं तस्मादित्युपाध्यायः ।' भाचार्य श्रुतसागरसूरि, तस्वार्थवृत्ति : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, पृष्ठ ३०४ ।