Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 126
________________ -. . .-- -. . १०४ जैन-मक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि भक्तिसे सम्यग्दर्शनका प्राप्त होना लिखा है।' - श्री शिवार्यकोटिने भगवती आराधनामें कहा है कि जो पुरुष पंच-परमेष्ठीमें भक्ति नहीं करता, उसका संयम धारण करना, ऊसर खेतमें बीज बोनेके समान है। पंच-परमेष्ठीकी भक्ति के बिना यदि कोई अपनी आराधना चाहता है, तो वह ऐसा ही है, जैसे बीजके बिना धान्यकी इच्छा करना, और बादलके बिना पानी चाहना। ___ भगवज्जिनसेनाचार्यका कथन है कि पंचनमस्कार मन्त्रके द्वारा, जो योगिराज परमतत्त्व परमात्माका ध्यान करता है, वही ब्रह्म-तत्त्वको जान. पाता है।" आचार्य शुभचन्द्रने ज्ञानार्णव ( वि० सं० १२०७-१२२६ ) में लिखा है कि पंच-परमेष्ठीको स्तुति करनेसे ही नित्य परमानंद' प्राप्त होता है। श्री जिनदत्तसूरि (वि० सं० ११३२-१२१० ) ने उपदेशरसायन रासमें १. सम्यग्दर्शनशुद्धः संसार-शरीर-भोग-निर्विण्णः । पंचगुरु-चरण-शरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः ॥ आचार्य समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र : पं० जुगलकिशोर सम्पादित, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली, अप्रैल १९५५, ७।१२, पृष्ठ १७५ । तेसिं राहण्णा, यगाण ण करेज जो गरो भत्तिं । धत्तिं पि संजमं तो, सालिं सो ऊसरे ववदि ।। श्री शिवार्यकोटि, भगवती आराधना : मुनि श्री अनन्तकीर्ति दि. जैनग्रन्थ माला ८, बम्बई, वि०सं० १९८९, ५३वीं गाथा, पृष्ठ ३०३। ३. वीएण विणा सस्सं, इच्छदि सो वासमभएणं विणा । आराधणमिच्छंतो, पाराधणमत्तिमकरंतो।। देखिए वही : ५४वीं गाथा, पृष्ट ३०३ । ४. पञ्चब्रह्ममयमन्त्रैः सकलीकृत्य निष्कलम् । परं तस्वमनुध्यायन् योगी स्याद् ब्रह्मतत्त्ववित् ।। भगवजिनसेनाचार्य, महापुराण : प्रथम भाग, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी वि०सं० २००७, २१॥२३६, पृष्ट ४९९ । ५. दृश्यन्ते भुवि किं न ते कृतधियः संख्याम्यतीताश्चिरं , ये लीलाः परमेष्टिन प्रतिदिनं तन्वन्ति वाग्मिः परम् । तं साक्षादनुभूय नित्यपरमानन्दाम्बुराशिं पुन ये जन्मभ्रममुत्सृजन्ति पुरुषा धन्यास्तु ते दुर्लभाः ॥ आचार्य शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव : श्री परमश्रुतप्रमावक मण्डल, बम्बई, २९वाँ इलोक।

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