Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 125
________________ जैन-मक्तिके भेद जैनाचार्योंने णमोकार मन्त्रकी शक्तिको देवता कहा है। उसमें आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तीनों ही प्रकारकी शक्तियाँ सन्निहित हैं। वे मोहके दुर्गमनको रोकनेमें पूर्ण रूपसे समर्थ हैं।' पंचपरमेष्ठि-भक्ति पंच-परमेष्ठीकी भक्ति करनेवाला जीव, अष्टकर्मोका नाश कर, संसारके आवागमनसे छूट जाता है। उसे सिद्धि-सुख और बहुत-मान प्राप्त होता है। पंचपरमेष्ठी लोकोत्तम हैं, वीर है, नर, सुर तथा विद्याधरोंसे पूज्य हैं । संसारके दुःखाभिभूतं प्राणियोंके लिए, वे ही एकमात्र शरण हैं। उनका स्वभाव मंगलरूप है। आचार्य पूज्यपादने भी उनको मंगलरूप ही माना है। उनकी भक्ति करनेसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रकी प्राप्ति होती है। वे मोक्ष प्रदान करनेमें पूर्ण रूपसे समर्थ हैं । आचार्य समन्तभद्रने पंचपरमेष्ठीको १. स्तम्भ दुर्गमनं प्रति प्रयततो मोहस्य सम्मोहनम् पायात्पन्चनमस्क्रियाक्षरमयी साराधना देवता ॥ . धर्मध्यानदीपक : मांगीलाल हुकुमचन्द पांड्या, कलकत्ता, नमस्कार मन्त्र : तीसरा श्लोक, पृष्ठ २ । एण थोत्तेण जो पंचगुरुवंदए, गुरु य संसारघणवल्लि सो छिंदये । लहइ सो सिद्धिसोक्खाइ बहुमाणणं, कुणइ कम्मिधणं पुंजपजालणं ।। दशभक्ति : शोलापुर, १९२१ ई०, आचार्य कुन्दकुन्द, प्राकृत पंच गुरुमक्ति : ६ठी गाथा, पृष्ट ३५७ । ३. सायहि पंचवि गुरवे मंगलचउसरण लोयपरियरिए । णरसुरखेयरमहिए आराहण्णायणे वीरे।।। आचार्य कुन्दकुन्द : अष्टपाहुड, श्री पाटनी दि. जैन ग्रन्थमाला, मारोठ, मारवाड़, भावपाहुड : १२४वीं गाथा । ४. अहस्सिद्धाचार्योपाध्यायाः सर्वसाधवः , .. कुर्वन्तु मङ्गलाः सर्वे निर्वाणपरमश्रियम् । सर्वान् जिनेन्द्रचन्द्रासिद्धानाचार्यपाठकान साधून् । रत्नत्रयं च वन्दे रत्नत्रयसिद्धये भक्त्या ॥ दशमस्यादिसंग्रह : ८, ९ श्लोक, पृष्ट १६७-१६८ ।

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